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234 :: मूकमाटी-मीमांसा परिवेश से सम्बद्ध करने के लिए ये संवाद सार्थक और उपयुक्त-से लगते हैं।
___ स्वर्ण कलश की उपेक्षा कर मिट्टी के कलश को मंगल घट के रूप में वरीयता और मान्यता देना उसके अपमान का कारण हो गया । बदला लेने की भावना बढ़ती क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो उठी । स्वर्ण कलश ने आतंकवादी दल के सहयोग से सेठ के परिवार को नाना प्रकार की उलझनों, यातनाओं और भयावह स्थितियों के घेरे में डालकर हर प्रकार से उसे विवश कर दिया । परिवार की और अपनी रक्षा के लिए सेठ को प्राकृतिक शक्तियों और गजदल तथा नागनागनियों से सहयोग लेना पड़ा । किसी प्रकार वह अपने परिवार की प्राण रक्षा कर पाता है । अपने आप में यह एक गम्भीर त्रासद दृश्य है जो धीर-गम्भीर प्रवृत्ति वाले को भी व्यथित और कँपा देने वाला है। सेठ ने इस प्रकार इस विवशता में क्षमा भाव को उबुद्ध किया कि जिसका प्रभाव क्रूर आतंकवादियों पर पड़ा और उनका क्रूर हृदय पसीजा और सेठ परिवार को प्राण दान मिला।
क्षमाशील महान् होता है और यह मानवता का महान् गुण है किन्तु इसका उद्बोधन स्वत: आत्म-प्रेरणा से होना चाहिए, न कि बन्दूक और कट्टे की नोक पर डरा-धमका कर, विवश कर, क्षमादान कराया जाय । अरे ! जो हमारे परिवार के प्राणों का भूखा है, उसे हम क्षमा करेंगे? कदापि नहीं! किसी मूल्य पर नहीं। हम निरीह, विचारा और दयनीय स्थिति में भयभीत हैं। घिरे हैं। मृत्यु के हवाले हो सकते हैं। यदि बच गए तो उस परम पिता की कृपा मानेंगे। उसी आतंक की स्थिति में हमसे बल प्रयोग पर क्षमा कराया जा सकता है। किन्तु क्या यह हमारा क्षमा करना स्वयं का होगा ? नहीं ! नहीं !! हमने कहाँ क्षमा किया ? हमसे तो बल पूर्वक क्षमा कराया गया । इस क्षमा को यदि यथार्थ रूप में क्षमा मान लिया जाय तो यह भूल होगी। बन्धन में पड़कर विवशता में जो क्षमा किया गया वह तो प्रायश्चित हुआ और जघन्य प्रायश्चित, जिसे भुगतना ही पड़ेगा । महाराज युधिष्ठिर ने महारानी द्रौपदी द्वारा अपने द्वार पर किए गए राजा दुर्योधन के अपमान को प्रायश्चित कहा था, जिसे चीर-हरण और महाभारत संग्राम के रूप में भुगतना पड़ा, जिसके फलस्वरूप भारत भूमि रक्तरंजित हुई और देश वीरविहीन हो गया।
__आतंकवाद यही चाहता है और इसका अन्तिम निदान यही है भी। इसको जैसे-तैसे टाल जाना, समझौता करना कायरता और पलायनवादिता है। भले ही राजनीति की भाषा में कूटनीति और चतुराई माना जाय । आग सुलगेगी तो जलेगी ही। धधकती ज्वाला जल के फुहारों से नहीं बुझ सकती।
स्वर्णकलश और आतंकवाद का प्रकरण सेठ परिवार के साथ आज की वर्तमान परिस्थिति और सन्दर्भ में सटीक एवं नितान्त उपयुक्त चित्रित हुआ है। इसका समाधान राजसत्ता और आधुनिक समाज व्यवस्था के अनुरूप दिया गया है, जो राहत के रूप में है । कुछ समय बीतने पर लोग भूल जाएँगे ही । बस इसी निमित्त से जैसे-तैसे आई विपत्ति को टालने का समाधान है, जो उचित नहीं है । दूसरी बात यह भी तो है कि जब स्थायी समाधान ढूँढ़ने की युक्ति का प्रयास किया जाएगा तो उपयुक्त समाधान के ढूंढ़ निकालने तक, या पहले ही सत्ता ही बदल जाएगी। सारे प्रयास और श्रम पर पानी फिर जाएगा । ऐसा भी तो नहीं है कि सत्ता में आने वाले इतने प्रयत्न से प्राप्त समाधान से लाभ उठाएँ । हर सत्ताधारी अपनी अलग पद्धति और प्रणाली को चलाकर नवीन ख्याति चाहता है । जहाँ ऐसा नहीं है और जिस हद तक नहीं है, वहाँ उसी हद तक सफलता भी है। प्रसिद्ध दार्शनिक ‘राना डे' ने कहा था : “कोरी पटरी पर लिखना शुरू न कीजिए अर्थात् जहाँ तक लिखा गया है उसके आगे बढ़िए । सबको मिटा कर फिर से लिखना शुरू नहीं करना चाहिए।" आतंकवाद सेठ से क्षमादान ले ही लेता है । वह पाषाण-फलक पर आसीन साधु से भी कहता है :
“यहाँ सुख है, पर वैषयिक/और वह भी क्षणिक !