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मूकमाटी-मीमांसा :: 233
गुरुदेव का मुदित-मुख/प्रसाद बाँटने लगा,/अभय का हाथ ऊपर उठा,
जिसमें भाव भरा है-/'शाश्वत सुख का लाभ हो'।" (पृ. ४८४) फिर आतंकवाद साधु से याचना करता है कि हमें भी संसार के दुःख से विरक्त कर सुख-शान्ति की ओर लौटने का आशीर्वाद दीजिए और वचन दीजिए कि "तुम्हारी भावना पूरी हो।” साधु ने मुस्कुराते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता । क्योंकि मैंने स्वयं अपने गुरु को वचन दिया है कि जीवन में भूलकर भी किसी को वचन नहीं दूंगा । हाँ, कोई अपने हितार्थ विनीत भाव से दिशा-बोध चाहता हो तो उसके कल्याण के लिए उसे अनुकूल लगने वाली मधुर वाणी में प्रवचन देना अर्थात् उसके मन के उलझाव को विशद व्याख्या द्वारा शंका-समाधान कर, समझा कर बोध करा देना, यही पर्याप्त होगा।
मोक्ष के विषय में साधु का मत है कि साधना की चरम सीमा पर बन्धन रूप तन-मन-वाणी का मिट जाना ही मोक्ष है । इसी शुद्ध दशा में परमानन्द की प्राप्ति होती है और तब आवागमन से मुक्ति हो जाती है । इसी को दूधजन्य घी के प्रमाण से समझाया है कि दूध अपने उत्तरोत्तर विकास क्रम से अन्त में जब घी बन जाता है तब फिर लौट कर दूध नहीं बन सकता। वैसे ही मोक्ष प्राप्त जीव पुनर्जन्म नहीं लेता। इसी प्रकार आचरण-संहिता पर बल देते हुए अन्तिम उपदेश के रूप में सन्त साधु ने कहा कि जहाँ पर मैं आसीन हूँ, वहाँ आकर देखो मुझे । क्योंकि ऊपर से नीचे देखने में चक्कर आता है और नीचे से ऊपर देखने में अनुमान लगभग गलत निकलता है। इसलिए मेरे कथित शब्दों पर विश्वास करो। विश्वास से तुम्हें अनुभूतिजन्य दिशा मिलेगी, और अवश्य मिलेगी। धैर्य से शान्त चित्त अग्रसर होते चलो। मार्ग में नहीं साधना के निर्दिष्ट स्थान पर विमल प्रकाश की अनुभूति होगी । वहीं ज्ञान का प्रकाश होगा, जिसे प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य होता है :
“बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद, यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है ?/तुम ही बताओ ! दुग्ध का विकास होता है/फिर अन्त में/घृत का विलास होता है,/किन्तु घृत का दुग्ध के रूप में/लौट आना सम्भव है क्या ? ...क्षेत्र की नहीं, आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ/वहाँ आकर देखो मुझे, तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान/क्योंकि/ऊपर से नीचे देखने से चक्कर आता है/और/नीचे से ऊपर का अनुमान/लगभग गलत निकलता है । इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर
मार्ग में नहीं, मंज़िल पर!" (पृ. ४८७-४८८) महाभारत के वर्वरीक की तरह सारे क्रिया-कलाप और प्रकरण को 'मूकमाटी' साक्षी रूप में देखती रही। साधु के प्रवचन- मिस प्रबोधन के पश्चात् सारा वातावरण महामौन में विलीन हो गया । माटी अन्त तक देखतीस्तम्भित रही। सन्त कवि ने भी साधु-दर्शन कराकर विश्वास के उपदेश पर वाणी को विराम दिया।
यह चतुर्थ खण्ड पिछले तीन खण्डों की अपेक्षा अधिक बड़ा है और अपने आप में इसका अलग अस्तित्व हो सकता है। इसकी एक अद्भुत विशेषता यह है कि यहाँ पूजा-उपासना के उपकरण सजीव वार्तालाप में तल्लीन हो जाते हैं। इनके वार्तालाप के माध्यम से मानवीय भावों और गुण-दोष का अभिव्यक्तीकरण होता है। काव्य को आधुनिक