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________________ 232 :: मूकमाटी-मीमांसा यहाँ काव्य रचयिता ने स्वयं पूरे काव्य कथन को अति संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है और निदान रूप में निष्कर्ष भी दे दिया है । शब्द सृजनशील जीवन' की अपनी उपयोगिता है । सृजनशील जीवन ही जीवन का सार्थक रूप माना गया है । सृजन निर्माण-उत्पत्ति का बोधक है, भले ही कृति स्थूल हो या सूक्ष्म, भावात्मक हो या रचनात्मक, बिना सृजन के मानव जीवन निरर्थक-निस्सार माना जाता है । सृजन भी स्वार्थ-परमार्थ दोनों प्रकार का होता है। एक निरा स्वार्थी होता है जो सृजनकर्ता के लिए ही प्रयोग में आता है और दूसरा परमार्थपरक होता है जो शुद्ध समाज के कल्याण और उनकी सुख-सुविधा के लिए होता है। स्थूल में विद्यालय, धर्मशाला, मन्दिर, चिकित्सालय आदि आते हैं और सूक्ष्म में काव्य ग्रन्थ हैं , जो नाना पुराण, निगमागम और काव्य के विविध रूप एवं साहित्य तथा अन्य विधाओं के शास्त्र, जिनमें ज्ञान-विज्ञान-कला निहित है, के रूप में है, जिनसे नित्य लोग लाभ उठा रहे हैं और उठाते रहेंगे। माँ धरती ने माटी से प्रथम खण्ड में कुम्भकार का संसर्ग कराया। यहीं से माटी का कुम्भकार के साथ साहचर्य शुरू होता है। काव्य के चार खण्डों में उसकी साधनावस्था की चार दशाएँ हैं जो अनवरत, निरन्तर अग्रसर होती रही हैं । दूसरे खण्ड में कुम्भकार के प्रति समर्पण भाव के साथ ही अहम् भाव का भी उत्सर्ग करा दिया है। तीसरे खण्ड में समर्पण के पश्चात् समर्पित माटी की खरी-से-खरी अनगिनत परीक्षाएँ होती हैं, जिसमें अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ी है, जिसको माटी ने बड़े साहस और उत्साह के साथ उसको सहन किया है । चौथे खण्ड में बिन्दु मात्र वर्ण जीवन को ऊर्ध्वगामी-ऊर्ध्वमुखी बनाया है । माटी एक कण से उठकर कुम्भ के रूप में सृजित हुई । बिन्दु मात्र वर्ण जीवन को यही लाभ हुआ। जीवन में अर्पण की भावना हो तो किसी महान् के चरणों में समर्पित होने पर जीवन को ऊर्ध्वगामी और ऊर्ध्वमुखी बनाया जा सकता है। हाँ, वह चरण चाहिए जो समर्पित की लाज को निभा सकें । उसे ऊपर उठा सकें । महान् तो कभी अपने को महान् न मानते हैं, न कहते हैं। देखिए स्वयं कुम्भकार को कि जिसकी महानता को स्वीकार कर कुम्भ सहित सबने उसे कृतज्ञता की दृष्टि से देखा यानी उसका हृदय से आभार और अनुग्रह स्वीकार किया। जबकि कुम्भकार में तनिक भी महानता का भाव लक्षित नहीं होता है। वह बड़ी ही विनम्रता और शिष्टता के साथ तुरन्त कह उठता है-यह सब तो ऋषियों और सन्तों की कृपा है । मैं तो एक तुच्छ सेवक मात्र हूँ। यह प्रसंग स्मृति दिलाता है उन महान् पराक्रमी पवन सुत हनुमान का, जो जगत्-माता सीताजी का दर्शन करके लंका दहन के पश्चात् राम के समक्ष उपस्थित होकर कहते हैं : _ "प्रभु की कृपा भयउ सब काजू । जनम हमार सफल भा आजू ॥" तुलसीदास, मानस प्रचण्ड पराक्रमी रावण प्रशासित लंका को जलाकर हनुमान सकुशल लौट आने में अपना तनिक भी पराक्रम न मानकर प्रभु कृपा को ही श्रेय देते हैं। ___ अन्त में, सहसा तरु-तले, साधु-दर्शन कर सभी उधर ही आकर्षित होते हैं । सादर अभिवादन कर उनकी प्रदक्षिणा करते हैं। पूज्य-पाद के कमलवन्त चरणों का पादाभिषेक होता है । चरणोदक लिया जाता है और सभी गुरु कृपा की प्रतीक्षा में बैठ जाते हैं। फिर साधु कुछ ही पलों में मुदित मुद्रा में उपस्थित समुदाय को प्रसाद बाँटने लगे। और आशीर्वादार्थ अभय का हाथ साधु ने ऊपर उठाया, जिससे भाव व्यंजित हो रहा था : “शाश्वत सुख का लाभ हो।" "कुछ ही दूरी पर/पादप के नीचे/पाषाण-फलक पर आसीन नीराग साधु की ओर/सबका ध्यान आकृष्ट करता है/... कि तुरन्त सादर आकर प्रदक्षिणा के साथ/सबने प्रणाम किया पूज्य-पाद के पद-पंकजों में।/पादाभिषेक हुआ,/पादोदक सर पर लगाया। फिर,/चातक की भाँति/गुरु-कृपा की प्रतीक्षा में सब ।/कुछेक पल रीतते कि
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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