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मूकमाटी-मीमांसा :: 231
“अरे संकट !/ हृदय-शून्य छली कहीं का ! / कंटक बन मत बिछ जा ! निरीह - निर्दोष-निश्छल / नीराग पथिकों के पथ पर !" (पृ. २५६)
यह है गुलाब की स्वामि-भक्ति का आदर्श रूप । इसी प्रकार, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' कृत 'राम की शक्ति - पूजा' में पवन सुत हनुमान ने जब यह जाना कि रावण के पक्ष में भगवती महामाया के होने से राम रणक्षेत्र में विफल हो रहे हैं, और वह पूरे आकाश में व्याप्त है, तब ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमान ने स्वत: निर्णय ले लिया महामाया को निगल जाने का । और इतनी तीव्रगति से आकाश में महामाया को ढूँढने लगे कि उनके बलवती वेग की सनसनाहट और हरहराहट से कैलास पर समाधिस्थ शंकर का ध्यान टूट गया और सारा रहस्य भी ज्ञात हो गया। तब शंकरजी ने ही महामाया को संकेत किया कि आज अपने बचने का उपाय सोच लो, अन्यथा प्रभु श्री राम की भक्ति हनुमान् के रूप में साकार हो गई है, और वह आज तुम्हें निगल सकता है और मैं कुछ नहीं कर सकता। तब महामाया ने माता अंजनी का रूप धर लिया और अपने को इस रूप में बचाते हुए माँ अंजनी रूप में हनुमान को डाँट फटकार कर राम की सेवा में तुरन्त वापिस भेजा। यह भक्ति भावना अपने उस चरमोत्कर्ष रूप में है जिस आदर्श तक पहुँचना असम्भव-सा है।
खण्ड चार : ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' : इस खण्ड में बड़ा ही मार्मिक, हृदयद्रावक, संवेदनशील चित्र प्रस्तुत है, जिसमें पूरे काव्य का सार तत्त्व निहित है । माँ धरती, बेटी 'माटी' की आज्ञाकारिता पर परम सन्तुष्ट है । एक छोटे से परिवार में, जहाँ माँ और बेटी ही हो, नाज़ और लाड़-प्यार से पली बेटी को सयानी होने पर माँ, जिस तरह अपने कलेजे के टुकड़े को वधू रूप में वर को सौंप देती है, अब यह 'वर' पर निर्भर है कि वह उसके साथ क्या सलूक करेगा ? उसे प्यार और सुख मिलेगा अथवा ताड़ना या दुःख या दोनों ही । क्या जाने क्या होगा, भाग्य-विधाता जाने। इसी तरह धरती ने माटी को कुम्भकार को सौंप दिया। यह जोड़ा अद्भुत है। इसे आजीवन साधना की कसौटी पर चलना पड़ा। मार्ग कण्टकाकीर्ण रहा । किन्तु यह सब तो बाहर से देखने वाले को था । लोग उनकी दीन- दयनीय स्थिति पर तरस खाते थे । जबकि उन दोनों ही का जीवन भीतर से सन्तुष्ट था। दोनों को एक-दूसरे से स्नेह था, प्रेम था। दोनों एक-दूसरे के लिए सर्वस्व थे । दोनों में अगाध, असीम प्रेम था। दोनों प्रेम के धनी थे। एक-दूसरे को पाकर धन्य थे । माना कि उन्हें बाहर से कष्ट था, किन्तु भीतर से उनमें उत्साह भरा था । उन दोनों ने कभी भी मन में कष्ट का अनुभव नहीं किया । उत्साह और उमंग में निरन्तर स्फूर्तिमय बने रहे। प्यार और विश्वास का सम्बल जिसे मिला है उसे और क्या चाहिए ? सच्चे प्यार में कितना त्याग और बल होता है कि सब कुछ लुटाकर भी भगवान् भूतनाथ की तरह सम्पन्न बने रहते हैं। आँगन में भरे मोतियों के भण्डार को लुटा दिया । किसको ? राजा को, जिससे सब लोग पाते हैं । ऐसे ऐश्वर्यशालियों को देकर, और विनयपूर्वक देकर उन्हें निहाल कर देते हैं । इस महान् उत्सर्ग में रंच मात्र भी गर्व या अहं की भावना नहीं है । यह है इस प्रेमी युगल का कारनामा । इनके परस्पर सहयोग से कल्याण का सुखमय वातावरण जो सृजित हुआ उसे देखकर माँ 'धरती' विह्वल है । वह प्रसन्नता से उत्फुल्ल और आनन्दित है । उसकी विह्वलता उमंग में छलक पड़ी है :
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"फूली - फूली धरती कहती है - / माँ सत्ता की प्रसन्नता है, बेटा तुम्हारी उन्नति देख कर / मान-हारिणी प्रणति देखकर ।” (पृ. ४८२)
यहाँ ‘माँ सत्ता' सम्बोधन से तात्पर्य अलक्ष्य, सर्व समर्थ, अदृश्य शक्ति से है, जो सर्वत्र व्याप्त है और जो सबका सब कुछ देख रही है। वही है प्रसन्न आज तुम्हारे क्रियाकलापों पर । तुम धन्य हो बेटे ! तुम्हारे कृति पर - शक्ति प्रसन्न है । (यहाँ प्यार वश माँ धरती ने बेटी- माटी को बेटा सम्बोधित किया है जैसा कि स्नेहाधिक्य में अक्सर लोग कर देते हैं)।