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230 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रकाश-प्रदान में ही/उन्हें रस आता है।" (पृ. २४४-२४५) इन्द्र का पौरुष जागा है। वे कान तक धनुष तानकर निरन्तर छोड़ रहे हैं।
“छिदे जा रहे, भिदे जा रहे,/विद्रूप-विदीर्ण हो रहे हैं
बादल-दलों के बदन सब।" (पृ. २४६) सागर फिर जल भरे बादलों को भेजता है जो बिजली का उत्पादन कर सबकी आँखें बन्द कर रहा है । सदा अपलक रहने वाले इन्द्र की आँखें भी बार-बार पलकें मारने लगीं। तभी इन्द्र ने आवेश में आकर अमोघ अस्त्र – वज्र निकाल कर बादलों पर फेंक दिया । वज्राघात से आहत बादल आह कर उठे । मेघों का रोना अपशकुन सिद्ध हुआ सागर के लिए:
"सागर ने फिर से प्रेषित किये/जल-भरे लबालब बादल-दल, ...बादलों ने बिजली का उत्पादन किया,/क्रोध से भरी बिजली कौंधने लगी सब की आँखें ऐसी बन्द हो गईं/...इन्द्र की आँखें भी बार-बार पलक मारने लगीं।/तभी इन्द्र ने आवेश में आ कर अमोघ अस्त्र वज्र निकाल कर/बादलों पर फेंक दिया। ...आग-उगलती बिजली की आँखों में/भूरि-भूरि धूलि-कण
घुस-घुस कर/दुःसह दुःख देने लगे।” (पृ. २४६-२४७) तब सागर ने पुन: बादलों को सूचित किया कि इन्द्र के अमोघ अस्त्र-वज्र के जबाब में रामबाण से काम लो । ईट का जबाब पत्थर से दो । ओला और पत्थर की वर्षा करो। ओले और भू-कणों के टक्कर में ओलों को पराजय का मुख देखना पड़ा:
"जहाँ तक हार-जीत की बात है-/भू-कणों की जीत हो चुकी है
और/बादलों-ओलों के गले में/हार का हार लटक रहा है ...भूखे भू-कणों का साहस अद्भुत है,/त्याग-तपस्या अनूठी ! जन्म-भूमि की लाज/माँ-पृथिवी की प्रतिष्ठा/दृढ़ निष्ठा के बिना
टिक नहीं सकती,/रुक नहीं सकती यहाँ ।” (पृ. २५२) यहाँ भू-कणों से तात्पर्य भू-कणों से निर्मित जीव अर्थात् शिल्पी, जो माँ पृथ्वी की प्रतिष्ठा और गौरवशाली यश को उन्नत देखने के लिए कितना श्रम, कष्ट और असह्य वेदना सह कर भी मौन, शान्त बना रहता है। उसकी वेदनाजन्य विकलता वह स्वयं जाने या माँ (धरती) जाने । यह ठीक ही कहा गया है कि "दुखिया का दुःख दुखिया जाने या दुखिया की माय ।" वह किसी बात की माँग नहीं करता । इसका यह मतलब नहीं कि उसे अभाव नहीं है, पीड़ा नहीं है, है; किन्तु सहनशक्ति मातृपक्ष धरती से मिली है। इसलिए वह व्यक्त नहीं करता । निरन्तर कई दिन शिल्पी को न देखकर उसकी प्रेम भरी मन्द-मुस्कान, लाड़-प्यार की बात, गात पर कोमल कर-पल्लवों का सहलाव, शीतल सलिल का स्नेहिल सिंचन स्मृति का विषय बनकर झलक आया । दूर प्रांगण में योग-भक्ति में निमग्न शिल्पी दिखाई दिया। गुलाब का पौधा स्वामी के संकट को देखकर, वह संकट पर ही बरस पड़ा और कहता है :