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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 229 सुख-शान्ति - यश का संग्रह कर ! / अवसर है, / अवसर से काम ले अब, सर से काम ले ! / अब तो छोड़ दे उलटी धुन ।” (पृ. २३१) प्रभाकर को नानाविध समझाने के उपरान्त न मानने की स्थिति में उसे ग्रहण लगने की धमकी देता है और कहता है राहु के ग्रस लेने पर तुम निष्प्रभ, निस्तेज होकर, कितने दीन-हीन और विचारा बनोगे, उस स्थिति को सोच लो। इस भयावह धमकी से यद्यपि दसों दिशाएँ भयभीत हो जाती हैं किन्तु तब भी सूर्यदेव अपने स्थान पर अडिग हैं । अविचलित हैं । निर्भय होकर कहते हैं- 'अरे ठगो ! खण्डित जीवन जीने वाले ! पाखण्डी ! रहस्य की बात समझने में अभी तुम्हें समय लगेगा । मानता हूँ कि भय का अवसर भयभीत करता है । भी भयभीत हो सकता हूँ किन्तु इससे क्या न्याय पक्ष छोड़ा जाता है ? कभी नहीं । अरे विकट परिस्थिति में अन्धा ही नहीं, आँख वाला भी भयभीत होता है परम सघन अन्धकार से। जीवन में जटिल और विकट परिस्थितियाँ आती हैं, फिर भी न्यायोचित मार्ग पर चलना ही उत्तम होता है ।' बादल को सम्बोधित कर कहते हैं : 1 " हिंसा की हिंसा करना ही / अहिंसा की पूजा है प्रशंसा, .. और / हिंसक की हिंसा या / पूजा / नियम से / अहिंसा की हत्या है "नृशंसा । धी- र‍ -रता ही वृत्ति वह / धरती की धीरता है / और कायरता ही वृत्ति वह / जलधि की कायरता है ।" (पृ. २३३) प्रभाकर द्वारा जम कर मही की मूर्धन्यता की सराहना और जलधि की जघन्यता की निन्दा की जाती है । बादलों को भस्म करने हेतु कटिबद्ध प्रभाकर को देखकर सागर राहु को याद करता है और निवेदन करते हुए कहता है कि प्रभाकर पृथ्वी से प्रभावित है, उसकी सेवा में निरत है। राहु की प्रशंसा का पुल बाँधते हुए उसे मृगराज और विषधर नाग की उपमा देकर प्रभाकर की मृग और मेण्ढक से तुलना करता है। राहु को, मनचाही मुँह माँगी अपार धनराशि उत्कोच रूप में भेंट स्वरूप देने के लिए प्रलोभन देता है । असंख्य अनगिनत हीरक मोती - मूँगा की राशि पाकर राहु ने अपना घर भर दिया किन्तु यह राशि अनुद्यम से प्राप्त है । इस विष - विषम पाप निधि से राहु का मस्तिष्क विकृत हो गया, वह काला पड़ गया । सुकृत क्षीण हो गया। पापमूर्ति-सा स्पर्श्यहीन हो गया। कहावत है गुरवेल (गुरुच) तो कड़वी ही होती है, उसे नीम का सहारा मिल गया तो फिर क्या पूछना ! उसकी कड़वाहट में चार चाँद लग गया। राहु का सा सेमेल हो गया - विचारों की समानता से । दोनों ही पर - पीड़ा में आनन्द लेने वाले हैं। दिन-रात दोनों प्रलय ही देखते हैं। ऐसा कुसंस्कार है उनका । अन्त में राहु सूर्य को सम्पूर्ण निगल गया। चारों तरफ हाहाकार मचा । दिशाओं की दशा बदल गई, उदासी छा गई । चेतन-अचेतन, जड़-जंगम सभी प्रकाश के अभाव में प्रभाकर के विरह में व्यथित हैं, विकल हैं। पक्षी दल का संकल्प देखिए- - जब तक सूर्यग्रहण का संकट नहीं टलता, तब तक उनके भोजन - पान त्याज्य है, आहार-विहार त्याज्य है, धरती सूर्य-कष्ट से तड़प रही है। उसकी वेदना असीम है। क्यों न असीम हो, क्योंकि धरती को अकारण सागर द्वारा पीड़ित करने की बात सूर्य को सह्य न हो सकी थी, और उसने अपने प्रखर तेज प्रताप से सागर को विचलित कर दिया । तभी तो सागर कुपित हुआ है। बदली और बादल के माध्यम से जब सूर्य को पराभूत न कर सका तब अकोर के माध्यम से राहु को पटाया और ग्रहण द्वारा सूर्य को विकल किया। उसकी इस निम्नस्तरीय भावना से प्राणिमात्र दु:खी हुए। बादलों के अत्याचार से देवराज इन्द्र भी कुपित हुए और गुप्त रूप से कार्य करने लगे : - " इस अवसर पर इन्द्र भी / अवतरित हुआ, अमरों का ईश । ...महापुरुष प्रकाश में नहीं आते / आना भी नहीं चाहते,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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