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228 :: मूकमाटी-मीमांसा
रहा था। वह मुक्ता राशि को स्वयं अपने हाथों से बोरियों में भर कर राजा को सौंपता है। राजा के मुख से निकल पड़ा :
“सत्य-धर्म की जय हो !/सत्य-धर्म की जय हो !!" (पृ. २१६) अपक्व कुम्भ भी राजा को अत्यधिक अर्थलोलुप देख भर्त्सना करता है । कुम्भ के व्यंग्यात्मक वचनों से राजा का सिर लज्जा, रोष और चिन्ता से झुक गया। राजा की व्यथा देख कुम्भकार ने कुम्भ को संकेत से वर्जित किया और कहा लघु होकर भूलकर भी गुरुजनों को प्रवचन नहीं देना चाहिए। उनसे गुण ग्रहण करना चाहिए, जो शिवत्व का सूचक होता है । कुम्भकार की सुलझी बातों से राजा का क्रोध, जो कुम्भ के प्रति था, शान्त हो गया :
“कुम्भ को समझाते कुम्भकार की बातों से/राजा की मति का उफानउद्दीपन उतरता-सा गया,/अस्त-व्यस्त-सी स्थिति/अब पूरी
स्वस्थ-शान्त हुई देख ।” (पृ. २१९-२२०) बोरियों में भरी मोतियाँ राजा की लोलुपता का उपहास-सी करती कहती हैं :
"हे राजन!/पदानुकूल है, स्वीकार करो इसे ।" (पृ. २२०) इस प्रकार कुम्भकार की दानवीरता से धरती की कीर्ति और धवलित हो रही है, जिसे देख सागर ईर्ष्या करता है और बदलियों को भेजता है । वह कहता है कि वर्षा के प्रवाह में कुम्भ को मिट्टी रूप में बदलकर बहा ले जाओ ताकि वह अस्तित्वहीन हो जाए। किन्तु बदली सागर नहीं थी । वह सागर के वाष्प रूप से परिवर्तित होकर बदली के रूप में थी। वह प्रशिक्षित होकर मीठे जल की वर्षा करने वाली थी। उसने मुक्ता की वर्षा कर धरती के यश को और बढ़ा दिया, जिससे सागर की इच्छा के विपरीत धरती का गौरव और ही बढ़ा । तब सागर और क्षुब्ध हुआ और धरती पर क्रोध उतारने के साथ ही समस्त स्त्री जाति की कटु आलोचना करने लगा। उसे निन्दनीय सिद्ध करने का प्रवचन दिया । सागर की धरती के प्रति अकारण क्षुब्धता प्रभाकर को सहन न हो सकी और उसने सागर के तल में निवास करने वाले तेज तत्त्व के प्रतीक बड़वानल को उबुद्ध किया, जो भयंकर रूप में खौलने लगा। और उसने खारे सागर को क्षण भर में पी डालने की ललकार भरी चुनौती दी। सागर व्यंग्य कसता हुआ, वचन चातुरी रूपी बाणों का सटीक सन्धान करता है। यह माना कि सागर एक कुशल कूटनीतिज्ञ है, जैसे आचार्य केशव की 'रामचन्द्रिका' में अंगद-रावण संवाद में सटीक, तर्कयुक्त, वाग्वैदग्ध्य पूर्ण प्रत्युत्पन्न मति का करिश्मा देखते ही बनता है, वैसे ही सागर समर्थक बादल सूर्य को सटीक तर्कों से समझाता है:
"अरे खर प्रभाकर, सुन !/भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल देवता-ग्रह-/ग्रह-गणों में अग्र तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है/अरे उग्रशिरोमणि ! तेरा विग्रह 'यानी-/देह-धारण करना वृथा है ।/कारण, कहाँ है तेरे पास विश्राम-गृह ?/तभी तो/दिन भर दीन-हीन-सा दर-दर भटकता रहता है !/फिर भी/क्या समझ कर साहस करता है सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?/अरे, अब तो सागर का पक्ष ग्रहण कर ले,/कर ले अनुग्रह अपने पर,/और,