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मूकमाटी-मीमांसा :: 227
पुण्य पालन में पाप-प्रक्षालन होगा ही । इस प्रकार तीसरे खण्ड का शीर्षक चरितार्थ हो जाता है।
कुछ स्थल अपने में इतने आकर्षक हैं कि हठात् पाठक को रोक लेते हैं। जैसे निम्न पंक्तियों में संगीत का-सा आनन्द छिपा है, जो कवि के शब्द चयन और उसके उचितानुचित प्रयोग के सहज अधिकार का द्योतक है :
"दान-कर्म में लीना/दया-धर्म-प्रवीणा/वीणा-विनीता-सी बनी..! राग-रंग-त्यागिनी/विराग-संग-भाविनी
सरला-तरला मराली-सी बनी !" (पृ. २०८) शब्द-शिल्प का एक और नमूना :
0 "उपरिल देहिलता झिलमिलाई/निचली स्नेहिलता से मिल आई।" (पृ. २०९)
0 "छल का दिल छिल गया/सब कुछ निश्छल हो गया।” (पृ. २१०) कुम्भकार का चित्रण परिश्रम का द्योतक है । कुम्भकार कठिन परिश्रम का प्रतीक-सा है। उसके कठिन परिश्रम के फलस्वरूप आँगन में मोतियों की वर्षा होती है। वह भी उसकी अनुपस्थिति में । लोलुप राजा मुक्ता को बोरियों में भरवाने लगता है । यह उसकी अनधिकार चेष्टा है । तभी तो आकाशवाणी होती है :
"गगन में गुरु गम्भीर गर्जना :/अनर्थ अनर्थ 'अनर्थ ! पाप''पाप''पाप'!/ क्या कर रहे आप..?/परिश्रम करो पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें/करो पुरुषार्थ सही पुरुष की पहचान करो सही,/परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगलो भले ही,/कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा है !/पर-कामिनी, वह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी/मिट्टी हो, सज्जन की दृष्टि में!/हाय रे ! समग्र संसार-सृष्टि में/अब शिष्टता कहाँ है वह ?
अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र!" (पृ. २११-२१२) उक्त कथन के पीछे प्रच्छन्न रूप से सत्ता मद में चूर, अधिकारियों की लोलुपता, बर्बरता, निष्ठुरता, व्यभिचारिता एवं अमानुषीय दुष्कर्मता का चित्रण है । इसे गोस्वामी तुलसीदास ने भी कलियुग के माध्यम से दर्शाया है।
कुम्भकार परिश्रम का प्रतीक तो था ही, साथ ही सन्त कवि ने उसे विरक्ति का भी प्रतीक सिद्ध कर दिया। जिस प्रकार तथागत' को खाँसते हुए दुर्बल, वृद्ध और इस सुन्दर शरीर के शव रूप को देखकर संसार से विरक्ति हो गई, वैसे कुम्भकार को अपने मंगलमय आँगन में घोर भौतिकवादी वृत्ति का दंगल देखकर उसके अन्तस्तल में विस्मय, विषाद और विरति की भावना जग गई । अपने आँगन में अनायास, अकारण विशाल जन-समूह को देखकर उसे विस्मय हुआ। राज मण्डली को मूर्च्छित और राजा को कीलित-स्तम्भित देख विस्मय और 'स्त्री' और 'श्री' के पाश में फँसे भयावह दुःख से आजीवन दुखी देखकर विरक्ति का भाव जगा । प्रकारान्तर से कवि ने अनुभूत सत्य को सिद्ध कर दिया कि सदाशय वाला परिश्रमी ही भौतिकता के आकर्षण को तिनका-सा त्यागकर विराग के माध्यम से मानव जीवन के चरम लक्ष्य 'मोक्ष' तक को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उसका चित्त सहज ही सरल और दयालु होता है । कुम्भकार कितना विनयशील है कि उस राजा से उल्टे क्षमा-याचना करता है, जो दस्युवृत्ति से प्रेरित उसके आँगन से मोतियों का ढेर लूट