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224 :: मूकमाटी-मीमांसा
...करुणा तरल है, बहती है/पर से प्रभावित होती झट-सी। शान्त-रस किसी बहाव में/बहता नहीं कभी/जमाना पलटने पर भी
जमा रहता है अपने स्थान पर।” (पृ. १५५-१५७) विवेचना कितनी सूक्ष्म और पैनी है । एक नहर-सी है एवं दूसरी नदी-सी । एक खेत में जाती है तो दूसरी सागर में। एक तात्कालिक दाह को मिटाकर सूख जाती है तो दूसरी राह को मिटाकर अर्थात् लीक छोड़कर नवीन पथ का निर्माण कर सुख का अनुभव करती है । करुणा तरल है, पर-हित में दूसरे की पीड़ा से द्रवणशील हो जाती है जबकि शान्त रस पर बाह्य प्रभाव स्पर्श तक नहीं कर पाता। युग-प्रभाव बदलने पर भी उसमें बदलाव नहीं आता। वह अपने स्थान पर सुदृढ़ और स्थिर-अविचल बना रहता है।
काव्य में प्रसंगानुसार आनन्द की हर्षातिरेक अवस्था ही रस के नाम से जानी जाती है। और नौ रसों में करुण तथा शान्त रस का विवेचन एवं कितने सटीक उदाहरणों से दिया गया है । नहर और नदी से बच्चा-बच्चा परिचित है। किन्तु भावातिरेक बोधक रसों के नाम पर इतनी पैनी और सूक्ष्म दृष्टि दौड़ाते हुए उनके आभ्यन्तर गुणों से साम्य रखने वाले प्रकृति नदी-नाले-नहर से तुलना करके पाठक को संश्लिष्ट रूप से भावों का चित्रण करके सहज रूप में बोधगम्य करा देना अद्भुत काव्य क्षमता का परिचायक है। ऐसा लगता है कि नित्य की देखी जाने वाली तथा साधारणसी लगने वाली वस्तुओं में भी जो गुण-रूप अदृश्य रूप में निहित है उसे बाह्य चक्षु से नहीं देखा जा सकता। उसके लिए ज्ञान चक्षु या दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है जो साधना के धनी तथा सिद्ध सन्तों को ही सुलभ होती है । जिसमें प्रतिभा है वही सक्षम होता है। कहावत है : “जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।"
इसी प्रकार सिंह और श्वान का उदाहरण देखते ही बनता है। सिंह स्वाभिमानी और सहज ही स्वतन्त्रता प्रिय स्वभाव का प्रतीक है जबकि श्वान दास प्रकृति का, लोलुप एवं स्वार्थी प्रकृति का है। सिंह कभी भी बिना गर्जना किए अर्थात् बिना सावधान और सचेत किए कभी किसी पर आक्रमण नहीं करता, और चुपके से पीछे से आक्रमण करना उसके स्वभाव के विपरीत है। वह मर्यादा, शान, सम्मान और गौरव का प्रतीक है। शक्ति में अतुलनीय तो है ही। उसके क्षेत्र में अन्य जीवों को कोई दूसरा सता नहीं सकता । श्वान स्वामी के टुकड़े पर निर्भर करता है । इसीलिए पीछे-पीछे विनीत भाव से दुम हिलाता चलता है। कभी-कभी अनावश्यक भी भुंकता है । श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता। जंजीर से बाँधा, घुमाया जाता है । अपनी जाति को ही देखकर गुर्राता है। भूख मिटाने के लिए अखाद्य वस्तुओं को भी खाता है, जो घृणित और त्याज्य हैं। कुछ न मिलने पर अपनी सन्तान को ही खा जाता है। जबकि सिंह अपनी जाति वालों से मिलकर रहता है। पिंजड़े में कभी बन्द हो जाने पर भी पूँछ ऊपर कर स्वतन्त्र रूप से रहता है। सिंह विवेकी होता है। अपने मारने वाले पर ही वार करता है और निश्चित करता है । श्वान मारक पर वार न कर मारने वाले साधन रूप ईंट-पत्थर आदि को ही पकड़ता है।
इसी प्रकार 'ही' और 'भी' अक्षर को लेकर विवेचना की गई है। 'ही' अहंकार का द्योतक है और 'भी' अनेक का, समुदाय का बोधक है । देखिए :
“'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है, 'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है, 'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता।