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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 225 रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था । / यही कारण कि राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी । / 'भी' के आस-पास बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य, / किन्तु भीड़ नहीं, / 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ हैं । ... सद्विचार सदाचार के बीज / 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं ।" (पृ. १७३) खण्ड-तीन : 'पुण्य का पालन : पाप- प्रक्षालन' : 'माटी" को मुख्य आधारशिला मानकर काव्य का इतना आकर्षक महल खड़ा करना, जो एक पथ प्रदर्शक रूप में समाज के सामने नवीन ज्योति पुंज - सा अडिग खड़ा है, साधुवाद की अपेक्षा करता है । वह कवि की बार-बार सृजन दृष्टि की ओर आकर्षित करता है। इस तथ्य पर कि माटी के उपरिल रूप को तो सभी देखते हैं, किन्तु उसके संस्कार की गहराई तक प्रविष्ट करना अद्भुत क्षमता एवं दर्शन मिश्रित शोधक दृष्टि का कार्य है । फिर उस पूत विचार के द्वारा कभी तर्क तो कभी आस्था द्वारा इस निष्कर्ष तक पहुँचने का लक्ष्य परिलक्षित हुआ है कि वह समाज के हर वर्ण एवं वर्ग को संवेदनशील चेतावनी देता हुआ समाजोपयोगी है। आधुनिक परिवेश में समाज के मनोभावों को प्रकारान्तर से अत्यन्त सुस्पष्ट कर दिया है । यह काव्य प्रांजल भाषा का पुंज है। सूक्तियों, मुहावरों और कहावतों का इसमें सुन्दर, सटीक प्रयोग हुआ है। इनके सफल प्रयोग से काव्य की प्राणवत्ता बढ़ी है । जैसे : O 0 "बायें हिरण / दायें जाय - / लंका जीत / राम घर आय।” (पृ. २५) " जब सुई से काम चल सकता है / तलवार का प्रहार क्यों ?" (पृ. २५७) I इस तीसरे खण्ड में पापकर्म का प्रतीक सागर और पुण्य की प्रतीक धरती है। सागर प्रलय के माध्यम से शीतलता का लोभ देकर उसे लूटता रहता है । धरती के वैभव को बहा - बहाकर अपने भीतर इकट्ठा कर रत्नाकर कहलाता है । जल तो जड़ होता ही है, अत: अपनी जड़ता का क्यों न परिचय दे ? जबकि अपने प्रति दुर्व्यवहार होने पर भी धरती कभी प्रतिकार की भावना मन में नहीं लाती है । इसीलिए इसकी सहनशीलता प्रसिद्ध है। धरती का सा सन्तों का भी स्वभाव होता है । उनकी मान्यता है कि सहनशक्ति के बल पर सर्वस्व पाया जा सकता है : 1 “जब कभी धरा पर प्रलय हुआ/ यह श्रेय जाता है केवल जल को धरती को शीतलता का लोभ दे / इसे लूटा है, /... और वह जल रत्नाकर बना है - / बहा - बहा कर / धरती के वैभव को ले गया है ...पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना / ... यह अति निम्न कोटि का कर्म है ... जलधि ने जड़-धी का, / बुद्धि-हीनता का, परिचय दिया है अपने नाम को सार्थक बनाया है । / अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करने का / संकल्प लिया है धरती ने, इसीलिए तो धरती / सर्वं - सहा कहलाती है / सर्व-स्वाहा नहीं और / सर्वं - सहा होना ही / सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है।” (पृ. १८९-१९०) सन्तों के लिए धरती का - सा सर्वंसहा होने का स्वभाव होना तो ठीक है, किन्तु गृहस्थ आश्रम जो रीढ़ है, उसके लिए सर्वंसहा की वृत्ति कायरता, पलायनवादिता की बोधक होकर अन्यथा रूप समझी जाती है। देखिए, इसी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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