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मूकमाटी-मीमांसा :: 223
कभी-कभी तत्त्व दर्शन और प्रासंगिक प्रकरण इतना रमा देता है कि कुम्भ : और कुम्भकार की साधना - यात्रा विस्मृत-सी हो जाती है, क्योंकि प्रसंगवश आने वाले प्रकरण बड़े ही रोचक और शिक्षाप्रद हैं। तो हम क्यों न कहैं कि चाहे मूल कथाक्रम से, चाहे प्रासंगिक चर्चाओं से और चाहे तत्त्व निरूपण तथा तत्त्व दर्शन दृष्टि से, हर विधि और हर ढंग से सन्त कवि आचार्यजी ने अक्षर-अक्षर और शब्द - शब्द में भर दिया है, जो लौकिक जीवन की उपयोगिता के साथ ही पारलौकिक जीवन के सुधार के प्रति सचेत और सावधान करता रहता है।
९-९९ का चक्कर, ६३- ३६ और ३६३ का सूक्ष्म विवरण कितना तर्कसंगत और सटीक है, जो कवि के व्यावहारिक जीवन के साथ ही गणित शास्त्र पर अधिकार का द्योतक है । यह प्रखर तार्किक होने के साथ प्रबल निष्ठावान्-आस्थावान् की क्षमता, कलाकार की अद्भुत शक्ति का परिचायक है । आस्था विश्वास का मूल है जो सन्तोष और आनन्द का शाश्वत स्रोत है। तर्क, तर्क से कटता है । आस्था, आस्था से जुड़ती है। एक से विरोध उत्पन्न होता है तो दूसरे से सहयोग और स्नेह ।
कहावत :
"आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का ।” (पृ. १३५)
निर्गुण-सगुण की झलक :
'तन मिलता है तन-धारी को /सुरूप या कुरूप, /सुरूप वाला रूप में और निखार कुरूप वाला रूप में सुधार / लाने का प्रयास करता है
आभरण- - आभूषणों श्रृंगारों से // परन्तु / जिसे रूप की प्यास नहीं है, अरूप की आस लगी हो/ उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !” (पृ. १३९)
संक्षिप्त रूप में सन्त द्वारा न्यायमूर्ति के समान रस का निर्णय :
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'करुणा - रस उसे माना है, जो / कठिनतम पाषाण को भी / मोम बना देता है, वात्सल्य का बाना है / जघनतम नादान को भी / सोम बना देता है । किन्तु, यह लौकिक / चमत्कार की बात हुई, / शान्त-रस का क्या कहें, संयम-रत धीमान को ही / 'ओम्' बना देता है ।
...सब रसों का अन्त होना ही - / शान्त - रस है ।” (पृ. १५९-१६०)
भावात्मक दृष्टि से करुण और शान्त रस की विवेचना :
“इस करुणा का स्वाद /किन शब्दों में कहूँ !/ गर यकीन हो नमकीन आँसुओं का / स्वाद है वह ! / इसीलिए / करुणा रस में शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना / बड़ी भूल है ।
उछलती हुई उपयोग की परिणति वह / करुणा है / नहर की भाँति !
और / उजली-सी उपयोग की परिणति वह / शान्त रस है / नदी की भाँति !
नहर खेत में जाती है/ दाह को मिटाकर / सूख पाती है, और
नदी सागर को जाती है/ राह को मिटाकर / सुख पाती है ।