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________________ 216 :: मूकमाटी-मीमांसा अपने गुण-धर्म और स्वरूप को परिवर्तित न कर सका। वर्ण संकर दोष बना रहा । "संकर - दोष का / वारण करना था मुझे / सो / कंकर - कोष का / वारण किया ... वर्ण का आशय / न रंग से है / न ही अंग से / वरन् / चाल - चरण, ढंग से है । यानी!/ जिसे अपनाया है / उसे / जिसने अपनाया है / उसके अनुरूप अपने गुण - धर्म - / रूप - स्वरूप को / परिवर्तित करना होगा / वरना वर्ण संकर- दोष को / वरना होगा ! ...नीर की जाति न्यारी है/ क्षीर की जाति न्यारी, / दोनों के / परस-रस-रंग भी परस्पर निरे - निरे हैं / और / यह सर्व - विदित है, / फिर भी यथा-विधि, / यथा-निधि / क्षीर में नीर मिलाते ही / नीर क्षीर बन जाता है और सुनो ! / केवल वर्ण-रंग की अपेक्षा / गाय का क्षीर भी धवल है आक का क्षीर भी धवल है/ दोनों ऊपर से विमल हैं/ परन्तु / परस्पर उन्हें मिलाते ही विकार उत्पन्न होता है -/ क्षीर फट जाता है पीर बन जाता है / वह ! नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, वरदान है / और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण संकर है/ अभिशाप है । " (पृ. ४६-४९) 'माटी' से निर्मित सुन्दर कलश या अन्य आकर्षक माटी के पात्रों को देखकर काव्य रचयिता अत्यधिक प्रभावित होता है । उसकी दृष्टि, निर्माण को लेकर बड़ी गहराई में प्रवेश करती है। इसकी उत्पत्ति, संगति और स्थान सब चतुर्दिक् बहुकोणीय दृष्टिपात करते-करते, कवि की विचारधारा क्रमश: दार्शनिक होने लगती है। दर्शनधारा में निमग्न हो जाने पर कवि का व्यक्तित्व विस्मृत हो जाता है और वह गहराई में पैठता है, 'माटी' के दार्शनिक स्वरूप पर। 'माटी' का सहज स्वरूप क्या है ? उसका निर्माण कैसे हुआ ? अपने मूल रूप में प्रथम कितनी विसंगतियों में वह थी ? उसका संसर्ग कुम्भकार से कैसे हुआ और किसके माध्यम से हुआ तथा किस हेतु हुआ ? अपने लक्ष्य तक पहुँचने में कितना शोध करना पड़ा। सहज ढंग से माटी में कितनी ही चीजें सड़-गलकर माटी में मिलकर वैसी ही हो जाती हैं। वैसा ही उनका संस्कार स्वभाव बन जाता है। किन्तु उसी माटी में कुछ ऐसे पदार्थ मिलते हैं जो माटी से भिन्न अपना संस्कार व स्वरूप बनाए रहते हैं। ऐसे ही अनमेल - बेमेल का मिलन संकर कहा जाता है। जहाँ भिन्न गुण और संस्कार के होते हुए भी मिलने के पश्चात् सम्यक् एकीकरण हो जाता है, वहाँ एक-दूसरे के प्रति त्याग और रक्षा की भावना उमड़ती है, जैसे नीर-क्षीर मिलन में : “इस अर्पण में कुछ और नहीं / केवल उत्सर्ग छलकता है ; मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ / इतना ही सरल झलकता है।" प्रसाद ऐसा ही मिलन या विलय 'वर्ण - लाभ' है । वरदान है। जहाँ मिलन के पश्चात् भी दो पदार्थों का संस्कार स्वरूप और गुणरूप अलग-अलग बना ही रह जाय, वहाँ एक को दूसरे से अलग कर देने में ही उन दोनों का कल्याण है। जैसे कंकर को माटी से छान, फटक कर कुम्भकार ने अलग कर दिया। इसमें अलग होने के भाव से कंकर में यदि रोष उत्पन्न होता है। तो उस पर ध्यान नहीं देना है क्योंकि वर्णसंकरता में विश्वसनीयता नहीं रहती। इसी से उसे अभिशाप कहा गया है। काव्य प्रणेता ने 'मूकमाटी' के माध्यम से योग्य, होनहार एवं आस्थावान् शिष्य को ज्ञानी गुरु के स्तर तक पहुँचाने का संकेत किया है। जहाँ पर वह साधना की उत्तरोत्तर कसौटी पर उसकी बौद्धिक क्षमता के माध्यम से उसे
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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