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मूकमाटी-मीमांसा :: 217
मंगल कलश की भाँति लोकमंगल की भावना से पूरित करके समाज को लौटाएगा । कबीर और तुलसी की तरह जो अपने को सबसे बुरा, छोटा और खोटा मानेगा, वही ऊपर उठेगा :
0 "बुरा जो देखन मैं गया, ...मुझ से बुरा न कोय।" - कबीर ० "राम सो बड़ो है कौन मो सो कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन मुझ से कौन खोटो॥" - तुलसी माटी ने अपने को सबसे पतित जाना। यह भावना ही पावन है। जिसमें अपने सही रूप की पहचान है, उसमें पतन का यह बोध ही उत्थान का द्योतक है।
“तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है/लघु-तम माना है/यह अपूर्व घटना इसलिए है कि/तूने/निश्चित-रूप से/प्रभु को,/गुरु-तम को पहचाना है !.../...पतन पाताल का अनुभव ही/उत्थान-ऊँचाई की
आरती उतारना है।" (पृ. ९-१०) लघुता का अनुभव करने वाला शिष्य ही महानता तक पहुँचता है । जो माटी के समान साधना के कष्टों को अंगीकार करने वाला है वही गुरु ज्ञान-ग्रहण का सच्चा पात्र बन सकता है। ऐसे ही पूत भावों से भरे साधक, ज्ञानी गुरु के आशीर्वाद से एक दिन गोविन्द का भी साक्षात्कार कर लेते हैं, जैसे माटी के मंगल कलश को अन्तिम खण्ड के अन्त में पादप के नीचे सक्षम ज्ञानी गुरु का नाटकीय ढंग से साक्षात्कार हुआ।
"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविन्द दियो बताय ॥" गुरु की महिमा सर्वोपरि है । सच्चे गुरु की महानता, गोविन्द से भी बढ़कर मानी गई है क्योंकि गोविन्द तक पहुँचाने वाला वही है । गुरु की महानता स्वीकार करने में ही शिष्य की आभ्यन्तर ऊँचाई लक्षित होती है।
___अध्यात्म की राह में ज्ञान के माध्यम से गुरु शिष्य में प्रवेश कर जाता है। इसीलिए माँ धरती की सीख पर शिष्य 'माटी' को अब रात्रि भी प्रभात-सी लगती है । दुःख भी सुख-सा लगता है । वस्तुत: सुख-दु:ख का अनुभव भावना पर निर्भर करता है :
"माटी को रात्रि भी/प्रभात-सी लगती है : दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है
दुःख भी सुख-सा लगता है। और यह/भावना का फल है।" (पृ. १८) जयशंकर प्रसादजी ने भी सुख-दुःख को भावना जनित ही माना है। उन्हीं के शब्दों में :
"मानव जीवन वेदी पर/परिणय है विरह-मिलन का
सुख-दुःख दोनों नाचेंगे/है खेल आँख का मन का।" इस काव्य की नायिका और नायक के रूप में माटी' और 'कुम्भकार' ही हैं। जब नायक से मिलने की लालसा और उत्सुकता नायिका में होती है तब प्रतीक्षा की कठिन घड़ी भी सुखानुभूति का अनुभव कराती है। मार्ग के रोड़े भी