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________________ 'मूकमाटी' की एक झलक डॉ. रमापति राय शर्मा भारतीय साहित्य के अवलोकन से विदित होता है कि भारतीय जनमानस में स्थायी रूप से स्थान पाने वाले काव्य ग्रन्थों के प्रणेता मूलतः सन्त अथवा भक्त कवि हैं, जैसे कबीर, सूर, तुलसी आदि । प्रस्तुत काव्य 'मूकमाटी' के प्रणेता भी प्रथम, भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ होने के साथ ही सन्त हैं और तब कवि । सन्त, संसार से विरक्त होकर भी रहता है संसार ही में । उसे सांसारिकता का सब कुछ ज्ञात है किन्तु वह उनके पाश से मुक्त है। इस मुक्तावस्था में ही उसे आनन्द या परमानन्द के सत्यस्वरूप का अनुभव होता है जो एक नैसर्गिक, अलौकिक आनन्द में मग्न कर देता है । सन्त की वृत्ति परोपकारी होती है। वह व्यष्टिगत आनन्द को समष्टिगत बनाना चाहता है। लोकोपकार की इस भावना से ही उसने तुच्छ, नगण्य 'माटी' को काव्य का आधार बनाया । जैसे माता-पिता बच्चे को ज्ञानी गुरु को सौंपकर निश्चिन्त हो जाते हैं तथा गुरु भी उसे लक्ष्य तक पहुँचाने का अपना नैतिक दायित्व मानता है । तब वह उसे प्यार और ताड़ना के माध्यम से, यथा अवसर जैसी भी स्थिति हो, उसे निरन्तर अग्रसर करता हुआ गन्तव्य तक पहुँचाकर ही सन्तुष्ट होता है, वैसे ही माँ धरती ने 'माटी' को कुम्भकार को सौंप दिया। शिल्पी ज्ञानी गुरु के रूप में माटी को शनैः-शनैः संस्कार द्वारा निर्दिष्ट सोपानों से उसे सुसंस्कृत करता हुआ अन्तिम सोपान तक पहुँचा देता है। काव्य-प्रणेता का सन्तत्व रूप प्रधान है । अतएव उसने उसी राह पर मूकमाटी का, कुम्भकार से प्रथम खण्ड में संसर्ग कराया, दूसरे खण्ड में समर्पण । तीसरे खण्ड में खरा परीक्षण और तब हर खण्डों की निर्दिष्ट कसौटी पर कसता और खरा उतारता हुआ, चौथे खण्ड में ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वमुखी बनाकर 'माटी' को शुभ मंगल कलश के रूप में प्रस्तुत कर देता है, जिसकी नाना विधि से ' होती है तथा जो शुभ और कल्याण का प्रतीक बन आज भी सर्वत्र सर्वमान्य है । पूजा वैदिक दर्शन के अनुसार सृष्टिकर्ता भी कुम्भकार स्वरूप ही है। वह सजीव कुम्भ का सृजन करता है और यह मिट्टी के नाना आकार-प्रकार के नित्य उपयोगी निर्जीव पात्रों का । किन्तु धन्य है यह शिल्पी, जिसके निर्जीव कलश को मंगल का प्रतीक मानकर मंगल कलश के रूप में सजीव उसकी पूजा करते हैं। अक्षत, दधि, रोरी और मिष्ठान, हल्दी सेटीक कर उसे पवित्रतम रूप देकर उस पर श्रद्धाभाव अर्पित करते हैं । कुम्भकार का महत्त्व कवि जायसी ने तत्कालीन राजा शेरशाह सूरी से अपने संवाद में बतलाया है । पात्र को छोटा-बड़ा, सुन्दर या कुरूप बनाना कुम्भकार के हाथ में है और साथ ही उसकी इच्छा पर निर्भर है। शेरशाह राजा था, सशक्त होने के साथ ही सुन्दर भी था । कवि जायसी की बढ़ती ख्याति को सुनकर उससे मिलने की इच्छा हुई । राजा के सम्मुख कवि का साक्षात्कार होते ही, राजा ने हँस दिया । कवि तो कवि है । कहा भी गया है कि 'जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि । ' जायसी तुरन्त ताड़ गए कि राजा मेरी कुरूपता पर हँसा है, उन्होंने छूटते ही कहा : "मोहि का हँससि कि कोहरहि" अर्थात् मुझ पर क्या हँसते हैं, उस कुम्हार पर ही हँसिए जिसने मुझे इतना काला, कुरूप और कूबड़ वाला बना दिया है और आपको राजा होने के साथ ही भव्य रूप भी दिया है । कवि की प्रत्युत्पन्न मति पर राजा स्तम्भित हो गया और मानना पड़ा कि कवि बौद्धिक पक्ष से कितना सूक्ष्म और सक्षम होता है। खण्ड - एक 'संकर नहीं : वर्ण- लाभ' : संकर शब्द का शाब्दिक अर्थ है दो चीजों का आपस में मिलना। यानी वह जिसकी उत्पत्ति भिन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से हुई हो । किन्तु यहाँ वर्ण का तात्पर्य चाल-चलन और आचरण है - रंग, रूप और अंग से नहीं। जिसने किसी को अपनाया है उसके अनुसार, अपनाए जाने वाले को अपने गुण-धर्म, रूप-स्वरूप को परिवर्तित करना होगा, अन्यथा वर्ण-दोष का वरण करना होगा। मिट्टी के साथ कंकर का मिलन,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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