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210 :: मूकमाटी-मीमांसा
कवि ने बताया है कि वसन्त के वैभव का वर्णन करते हुए उसके विदा होने की प्रक्रिया का विशद वर्णन किया है और कहा है :
"जिसने जनन को पाया है/उसे मरण को पाना है
यह अकाट्य नियम है !" (पृ. १८१) यहाँ कविवर ने भूलोक के चिर-परिचित नियम नश्वरता का उद्घोष वसन्त की विदाई के माध्यम से किया है। इसी द्वितीय खण्ड में सन्त कवि ने विभिन्न साहित्यिक बोधों का दर्शन कराया है। महाकवि ने नव रसों की विवेचना, संगीत की अन्तरंग प्रकृति का प्रतिपादन बड़े ही सहज एवं स्वाभाविक रूप में किया है। नव रसों में शृंगार की नितान्त मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। ऋतुओं के वर्णन में काव्य का चमत्कार पाठकों को आकर्षित करता है । तत्त्व दर्शन से तो पूरा-का-पूरा खण्ड भरा पड़ा है।
तीसरे खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' का आरम्भ जल-प्रलय के संकेत से होता है । जल वसुधा को शीतलता प्रदान करने का लोभ देकर उसके वैभव को बहा-बहाकर ले जाता है । इस प्रक्रिया के द्वारा वह अपना रत्नाकर नाम सार्थक करता है। यह उसके (जल) जड़बुद्धि होने की प्रतीति है । पर धरती ने सारी विपदाओं को सहकर असीम धैर्य और क्षमाशीलता का ही परिचय दिया है। इसकी पुष्टि आचार्यवर ने “सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में" (पृ. १९०) कहकर की है। पृथ्वी के साथ हो रहे अन्याय को सूर्यदेव सहन नहीं कर पाते । उनकी सहनशक्ति उनका साथ छोड़ देती है तो वे अपनी प्रखर किरणों को ताप से जल को सुखाते हैं, परन्तु जल पुन: वाष्प बनकर बादल में परिवर्तित होता है और बार-बार बहाकर धरती को सताता है । इतने के बावजूद सूर्यदेव अपना कर्म तल्लीनतापूर्वक निष्पादित करते हैं, परन्तु चन्द्रमा अपने पथ से विचलित हो जाता है। इसी कारण उसे कलंक का भागी भी बनना पड़ता है।
धरती की कीर्ति का उत्कर्ष देखकर सागर जल-भुन जाता है और पुन: वह अपनी क्षुद्रबुद्धि को प्रयुक्त करना चाहता है। धरती के प्रति सागर का यह वैर, वैमनस्यता भरा भाव प्रभाकर भी सहन नहीं कर पाता । सागर बड़वानल का भयानक रूप धरता है और प्रभाकर पर 'कथनी और करनी में बड़ा अन्तर है' कहकर व्यंग्य करता है । यहाँ कवि ने सागर को शुभ कार्यों में विघ्नकर्ता के रूप में चित्रित किया है। प्रभाकर को ग्रसने के लिए सागर राहु को निमन्त्रण देता है। राहु सूर्य को ग्रस लेता है, पृथ्वी पर दिन में भी अन्धकार छा जाता है और सारी सृष्टि आकुल-व्याकुल हो जाती है। तब इन्द्र सागर के अत्याचारों से पृथ्वीवासियों को मुक्ति दिलाने की ठानते हैं । यहाँ भी जमकर सागर और इन्द्र की सेनाओं के बीच युद्ध होता है । इसे सन्त कवि ने वर्तमान विश्व की स्थिति (विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं) का पर्याय बताते हुए कहा है :
"ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है
तो इधर 'नीचे/मनु की शक्ति विद्यमान !" (पृ.२४९) इन पंक्तियों में कविवर ने विज्ञान और धर्म, विज्ञान और आस्था का मौलिक और सर्वोत्कृष्ट वर्णन किया है। आचार्यवर ने बुद्धिवादी मानव के दिमाग़ के स्थिर रहने पर शंका व्यक्त की है कि पता नहीं यह कब सरक जाए और कौन-सा विनाशकारी क़दम उठा ले । वर्तमान विश्व में प्रक्षेपास्त्रों की होड़ के बीच सारी मानव जाति दुश्चिन्ताओं से घुली जा रही है। इस प्रकार का विशद चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है।