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मूकमाटी-मीमांसा :: 209 माटी पिण्ड रूप में कंकर - कणों से मिश्रितावस्था में है। कुम्भकार की कल्पना में माटी का मंगल घट अवतरित हुआ है। वह माटी को सुन्दर घड़े का रूप प्रदान कर उसे सार्थकता प्रदान करना चाहता है । इस सार्थकता के निमित्त माटी को परिशोधित करने की आवश्यकता है। माटी को परिशोधित किए जाने और उससे कंकरों को अलग किए जाने पर उसे व्यथा होती है । शिल्पी के मुख से आचार्यवर ने कहलवाया है कि माटी के संकरदोष को दूर करने के लिए ही कंकर - कोष अलग किया जा रहा है । यद्यपि दोनों में समानता है । इस कथन के समर्थन में कवि ने नीर-क्षीर के मिलन का उदाहरण प्रस्तुत किया है:
"नीर जाति न्यारी है / क्षीर की जाति न्यारी, क्षीर में नीर मिलाते हो / नीर क्षीर बन जाता है । ... गाय का क्षीर भी धवल है / आक का क्षीर भी धवल हैं
दोनों ऊपर से विमल हैं/ परन्तु / परस्पर उन्हें मिलाते ही
विकार उत्पन्न होता है-/ क्षीर फट जाता है/ पीर बन जाता है वह !
नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है ।
और / क्षीर का फट जाना ही / वर्ण-संकर है/ अभिशाप है।” (पृ. ४८-४९)
इस प्रकार शिल्पी कंकरों को समझाता है कि माटी से तुम्हारा मिलन अवश्य हुआ है, किन्तु उसने तुम्हें आत्मसात् नहीं किया । जल के सम्पर्क से तुम भीगते तो हो, पर फूलते नहीं । तुम हृदयशून्य हो, दूसरों के दुःख-दर्द देखकर भी तुम्हें पसीना नहीं आता। तुम तो पाषाण हृदय हो । अत: तुम्हारा माटी से विलगाव आवश्यक है। कंकरों की इस दशा-दिशा पर माटी को दया आती है और वह कंकरों को संयम के मार्ग पर चलने की सलाह देती हुई कहती है।
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" राही बनना हो तो / हीरा बनना है ।" (पृ. ५७ ) पुन: माटी कहती है :
"खरा शब्द भी स्वयं /" विलोमरूप से कह रहा हैराख बने बिना / खरा- दर्शन कहाँ ?" (पृ. ५७ )
द्वितीय खण्ड का आरम्भ कुम्भकार के द्वारा मिट्टी में मात्रानुकूल जल के मिलाने से होता है:
"लो, अब शिल्पी / कुंकुम - सम मृदु माटी में
मात्रानुकूल मिलाता है/ छना निर्मल-जल |
नूतन प्राण फूँक रहा है/माटी के जीवन में ।” (पृ. ८९)
माटी के फूलने के पश्चात् माटी को खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है । उसका सिर फट जाता है । वह बदला लेने की सोचता है । कुम्भकार को अपनी असावधानी पर पश्चात्ताप होता है । तत्क्षण वह “खम्मामि, खमंतु मे - / क्षमा करता हूँ सबको, / क्षमा चाहता हूँ सबसे " (पृ. १०५) कहकर क्षमा-याचना करता है ।
तत्पश्चात्, कुम्भकार पूरे मनोयोग से कुम्भों का निर्माण करता है और उन्हें सूखने हेतु धूप में रख देता है ।