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मूकमाटी-मीमांसा :: 211 आचार्यवर ने इस खण्ड में अपनी लेखनी के माध्यम से सम्पूर्ण मानव जाति का आह्वान किया है :
"निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए।" (पृ. २६७) मानवों को कविवर ने यह भी उपदेश देने का सार्थक प्रयत्न किया है कि जीवन यात्रा में पल-पल पर बाधाएँ, विपदाएँ उसका मार्ग रोकने को प्रस्तुत रहती हैं, परन्तु क्या कभी दृढ़ संकल्पवाला पथिक इन बाधाओं से घबराता है ? वह तो इन सभी बाधाओं को हँसते हुए धैर्य के साथ पार करता है । कवि की ये बातें हर प्राणी को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु असीम प्रेरणा प्रदान करती हुई प्रतीत होती हैं।
चौथे खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में आचार्य ने बताया है कि कुम्भकार ने कुम्भ को रूपायित कर दिया है और अवे में तपाकर उसे पूर्णता प्रदान करने की तैयारी भी कर रहा है । इस पूरी प्रक्रिया को कविवर ने बड़े ही सहज ढंग से काव्यबद्ध किया है । इस खण्ड का काव्यफलक इतना विस्तृत है कि यह स्वयं में एक खण्डकाव्य प्रतीत होता है । सन्त कवि का सम्पूर्ण काव्य कौशल इसी खण्ड में प्रस्फुटित हुआ है । प्रत्येक कथा इस प्रकार एक-दूसरे से सम्पृक्त है कि कहीं भी टूटन का आभास तक नहीं होता।
कई प्रकार की प्रक्रियाओं के बीच बबूल की लकड़ी अपनी व्यथा करती हुई कहती है । उसकी इस व्यथाकथा के माध्यम से वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था पर व्यंग्य की अभिव्यक्ति हुई है :
"कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए।/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम। इसे हम 'गणतन्त्र' कैसे कहें ?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है
या/मनमाना 'तन्त्र' है।” (पृ. २७१) अवे में लकड़ियाँ जलती-बुझती हैं । बार-बार कुम्भकार उन्हें प्रज्वलित करता है । अपक्व कुम्भ अग्नि से कहता है :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने ।" (पृ. २७७) तत्पश्चात्, पूर्णरूप से पके कुम्भ को कुम्भकार बाहर निकालता है । इस कुम्भ को वह श्रद्धालु नगर सेठ के सेवक के हाथों देता है कि इसमें भरे जल से अतिथि की उसकी तृषा तृप्त हो, उसका पाद-प्रक्षालन हो । सेवक ले जाने से पूर्व इसे सात बार बजाता है और उससे सात स्वर ध्वनित होते हैं।
माटी से निर्मित कुम्भ के सत्कार और उसे दिए जा रहे महत्त्व के कारण सेठ के घर का स्वर्ण-कलश विक्षुब्ध हो जाता है, अपनी उपेक्षा देखकर । अपने अपमान का बदला लेने के लिए वह आतंकवादी दल को आमन्त्रित करता है जो सेठ के परिवार को तबाह करे, बर्बाद करे । स्वर्ण कलश के क्या कारनामे हैं, किन-किन विपत्तियों से सेठ का परिवार जूझता है, वह अपने परिवार की रक्षा स्वयं और सहयोगी प्राकृतिक शक्तियों की सहायता से करता है, किस प्रकार आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन होता है-इन सबका विवरण इतना रोचक है कि यह कथा औपन्यासिक जान पड़ती है। कविवर ने स्वर्ण-कलश का चित्रण आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत किया है । आतंकवाद वर्तमान समय में पूरे विश्व