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: मूकमाटी-मीमांसा
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संपदा की सफलता वह/ सदुपयोगिता में है ना !" (पृ. २३५) “ अपने हों या पराये, / भूखे-प्यासे बच्चों को देख माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता।" (पृ. २०१ ) "नया मंगल नया सूरज / नया जंगल तो नयी भू-रज
नयी मिति तो नयी मति/ नयी चिति तो नयी यति
नयी दशा तो नयी दिशा / नहीं मृषा तो नयी यशा । " (पृ. २६३ )
सत्कर्मों का चुनाव ही जीवन की सार्थकता के मार्ग में मील का पत्थर है । 'मूकमाटी' पढ़ने पर इसकी अनुभूति स्वतः स्फूर्त हो जाती है। इसी समय भारतीय मनीषा के उस शाश्वत सन्देश का स्मरण हो जाता है जो किसी मनीषी के द्वारा अभिहित हुआ था :
" धनानि जीवितं चैव, परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत् । सन्निमित्ते वरं त्यागो, विनाशे नियते सति ॥"
अर्थात् भौतिक धन और शरीर रूपी धन दोनों नश्वर हैं । अतः सत्कार्यों में संलग्न क्यों नहीं करके इसकी सार्थकता स्थापित करें । 'माटी' अपने को लोक मंगल में ही समर्पित कर देने में अपनी सफलता एवं सार्थकता समझती है । निःसन्देह साधक आचार्य श्री विद्यासागरजी कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के धनी हैं जिनकी तूलिका से ऐसे शाश्वत साहित्य का सृजन सम्भव हो सका है जो सत्य, शिव और मंगलदायक है। निःसन्देह 'मूकमाटी' कवि की साधना का अन्यतम निदर्शन है | ‘मूकमाटी' काव्योत्कर्षों की दृष्टि से विशिष्ट एवं महनीय है । आचार्यश्री ने 'रसो वै स:' का प्रतिपादन तल्खी से किया है।
संक्षेपतः एवं सारांशतः ‘मूकमाटी' में गवेषणा केन्द्रित प्रस्तुति द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के नीतिपरक तथ्यों का सतर्क उपस्थापन हुआ है। इसमें पाण्डित्य के प्रकर्ष के साथ विवेचनपटुता का भी श्लाघ्य समन्वय है। सच है कृति की सार्थकता यह है कि वह नई दिशाओं की ओर संकेत करे । इस दृष्टि से मैं विवेच्य पुस्तक का स्वागत करता हूँ और सारस्वत उपलब्धि के लिए आचार्यश्री को नमन भी । यह विद्वत्समाज में पूर्णरूपेण समादृत होगी, ऐसा विश्वास है ।
पृ. 313
लो, पूजन-कार्य से निवृत्त हो
नीचे आया सेठ प्रांगण में और वह भी
माटी का मंगल-कुम्मले खड़ा हो गया !