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________________ सन्त काव्य-परम्परा की अद्वितीय प्रस्तुति : 'मूकमाटी' डॉ. नागेश्वर सिंह भारतीय साहित्य के अन्तर्गत सन्तकाव्य की एक सुदीर्घ और अविच्छिन्न परम्परा रही है । अपनी रचनाओं के माध्यम से सन्त-मनीषियों ने सांसारिक परिदृश्यों के अवलोकन के पश्चात् अपनी हृदयगत भावनाओं का अभिव्यंजन किया है। संसार और सांसारिक वस्तुओं के प्रति सन्तों का दृष्टिकोण सामान्य मानव से भिन्न प्रकार का और बिल्कुल ही अलग-थलग है । उन्होंने जीवन और जगत् की निस्सारता तथा उसके भ्रमयुक्त चक्रों को अच्छी तरह से जाना है, परखा है। बाहर से यह संसार जितना सम्मोहक दीख पड़ता है, उसका अन्तर्मन का घट उतना ही रीता और नीरसता की प्रतीति करानेवाला है । अपनी ज्ञान गरिमा के कारण सन्त सामाजिक परिवेश के मध्य संपूज्य और आदरणीय हैं। सांसारिक माया-मोह के पाश को तोड़कर जीवन को नए मार्ग पर ले जाने की अपरिमित शक्तियाँ उनमें निहित हैं । उनके द्वारा निर्देशित पन्थों से जगत् कल्याण सम्भव है । अज्ञानी संसार को वे ज्ञानी बनाने में समर्थ हैं । आध्यात्मिक जगत् में अभिगमन करने के पश्चात् ही संसार के समग्र दुःखों और क्लेशों से मुक्त हुआ जा सकता है। सन्त काव्य-परम्परा की अद्वितीय प्रस्तुति 'मूकमाटी' महाकाव्य आचार्य कवि सन्तशिरोमणि सिद्धयोगी श्री विद्यासागरजी की एक अनूठी काव्य कृति है । इस महाकाव्य में आचार्य कवि ने माटी (मिट्टी) जैसी दबी-कुचली और निरन्तर पैरों तले रौंदी जाती हुई निरीह - तुच्छ वस्तु को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाया है । कवि की सारी मनोभावनाएँ इसी बिन्दु पर व्यक्त हो जाती हैं, जहाँ उसने माटी की तुच्छता को चरम भव्यता प्रदान करने का सार्थक प्रयास किया है। आचार्य विद्यासागरजी मात्र कवि ही नहीं, एक तपे तपाए सन्त भी हैं । कवि की अदम्य साधना की अभिव्यक्ति उक्त महाकाव्य में दृष्टिगत होती है । - संस्कृत के आचार्यों और विद्वानों ने महाकाव्य की परिभाषा निश्चित करते हुए लिखा है कि महाकाव्य के लिए कम-से-कम आठ सर्गों अथवा खण्डों का होना आवश्यक है । परन्तु, प्रस्तुत ग्रन्थ उक्त परिभाषा की परख पर खरा नहीं उतरता, क्योंकि यह मात्र चार खण्डों में ही विभक्त है। फिर भी, यह पाँच सौ पृष्ठों का एक महनीय काव्य ग्रन्थ है, जो परिमाण की दृष्टि से महाकाव्य का स्पर्श करता है । परन्तु, इसमें एक अभाव खटकता है, वह यह कि काव्य ग्रन्थ आरम्भिक पंक्तियों के माध्यम से ईश वन्दना या गुरु वन्दना की प्रस्तुति नहीं है। हालाँकि ग्रन्थ के प्रथम पृष्ठ पर अंकित पंक्तियाँ प्राकृतिक दृश्य की उपस्थिति में अपनी सामर्थ्य की अभिव्यक्ति करती हैं : " सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, और इधर नीचे / निरी नीरवता छाई ।” (पृ. १) इसके बाद की पंक्तियाँ भी प्राकृतिक दृश्य के सौन्दर्य को उकेरने में पूरी तरह से समर्थ दीख पड़ती हैं । जैनाचार्यों द्वारा जैन साहित्य की प्रस्तुति अधिकांशत: संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में हुई है। हिन्दी में भी यह परम्परा जीवित है । उसी परम्परा के अन्तर्गत 'मूकमाटी' महाकाव्य का प्रणयन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ अध्यात्मवादी और दार्शनिक चेतना से समन्वित है । इसमें माटी जैसी अकिंचन, निरीह, पद दलित वस्तु महाकाव्य की विषय वस्तु बनाकर उसकी करुण वेदना को मुखर अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है । इसमें धर्म, दर्शन और अध्यात्म के दुरूह शब्दों को मुक्त छन्दों के माध्यम से सुबोध, सुगम बनाने का श्लाघ्य प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत महाकाव्य रूपक काव्य का अनूठा उदाहरण है। इसी विशिष्टता के कारण ऐसी प्रतीति होती है कि माटी आत्मा की प्रतीक है। माटी जैसी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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