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204 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रतीत नहीं होते, जैसे णमोकार मन्त्र, 'खम्मामि खमंतु मे, 'धम्मं सरणं गच्छामि, धम्मो दयाविसुद्धो'आदि । आधुनिक काल पर व्यंग्य कसते हुए 'वसुधैव कुटुम्बकम्' वाक्य को 'वसु एव कुटुम्बकम्' कहा गया है ।
लोकोक्ति और मुहावरों का प्रयोग अलंकृत भाषा में सहज ही होता है । इस काव्य में भी इनका व्यवहार अत्यन्त मनोहारी रूप में हुआ है। मुख पर ताला पड़ना, नाड़ी ढीली पड़ना, बेल कड़वी और नीम चढ़ी, भीति बिना प्रीति नहीं, क्षीर-नीर-विवेक, गागर में सागर, बिन माँगे मोती मिलें-माँगे मिले न भीख, तलवार के अभाव में म्यान का मूल्य ही क्या एवं पूत का लक्षण पालने में--आदि अनेक लोकोक्ति एवं मुहावरों ने इस काव्य में चार चाँद लगा दिए हैं।
समूचे काव्य में अलंकार तो इतने भरे पड़े हैं कि लगता है मानों मुक्ता-मणि-माणिक्य आदि रत्नजटित स्वर्णरजत के अलंकारों से सुसज्जित कोई सर्वाङ्ग सुन्दर पुरुष ही अपने कान्त कलेवर की छटा छिटका रहा है। स्थान-स्थान पर प्रसंगवश पात्रों के माध्यम से धर्म के अंगों, जीवनादर्शों तथा नीति वाक्यों को व्याख्यायित किया गया है और यह सब कवि के हृदय से सहज प्रस्फुटित-सा जान पड़ता है । इसमें ज्योतिष, हठयोग तथा गणित को भी यथास्थान इस प्रकार समाविष्ट किया है कि वे भी अङ्गावयव से ही प्रतीत होते हैं।
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