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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 203 का भाषा पर ऐसा अधिकार है जैसा कि चतुर वैद्य का नाड़ी पर या कुशल खिलाड़ी का अनाड़ी पर । हाँ, एक स्थान पर चन्द्र को धरती से दूर और भानु को निकट कहा है, जो वैज्ञानिक खोजों के प्रतिकूल है । सम्भवत: यह जैनागामों के अनुसार वर्णित है। ____ विस्तार भय से हम यहाँ रसों के उदाहरण नहीं दे रहे हैं। उपर्युक्त पद्यों से शृंगार, वीर और भयानक रसों का कुछ आभास हमें मिल रहा है। सभी रसों के चित्रण-दर्शन हेतु द्वितीय खण्ड पठनीय है। हाँ, कवि की ज्ञानगरिमा, शब्दों की पकड़, व्यंजना शक्ति तथा सहज अभिव्यक्तीकरण की क्षमता और रमणीयता प्रदर्शित करने के लिए एक प्रसंग की कतिपय पंक्तियों को उद्धृत करने का लोभ हम संवृत नहीं कर सकते। ग्रीष्म की तपन से पदार्थों के विनाश का प्रसंग है : 0 "नील नीर की झील/नाली - नदियाँ ये/अनन्त सलिला भी अन्त:सलिला हो/अन्त-सलिला हुई हैं।” (पृ. १७८) 0 “हरिता हरी वह किससे ?/हरि की हरिता फिर/किस काम की रही ? लचकती लतिका की मृदुता/पक्व फलों की मधुता/किधर गईं सब ये ?" (पृ. १७९) “वह राग कहाँ, पराग कहाँ/चेतना की वह जाग कहाँ ? वह महक नहीं, वह चहक नहीं,/वह ग्राह्य नहीं, वह गहक नहीं, वह 'वि' कहाँ, यह कवि कहाँ,/मंजु-किरणधर वह रवि कहाँ ? वह अंग कहाँ, वह रंग कहाँ/अनंग का वह व्यंग कहाँ ? वह हाव नहीं, वह भाव नहीं,/चेतना की छवि-छाँव नहीं, यहाँ चल रही है केवल/तपन "तपन' "तपन !" (पृ. १७९-१८०) कवि ने इस समस्त काव्य में शब्दों का गुम्फन मणि-कांचन-खचन की भाँति किया है । अनेक रेखाचित्र, तैलचित्र और भित्तिचित्र स्वयं ही उभर कर स्वच्छ निष्कलंक परिधान में खड़े से दृष्टिगोचर होते हैं। अनेक स्थलों पर तो ऐसे मनोहारी प्रसंग और शब्दों के साथ ऐसी अठखेलियाँ हैं कि मन करता है कि कवि का हाथ चूम लिया जाय, मस्तक इसलिए नहीं क्योंकि वह सन्त होने से पूज्यपाद हैं । अनुलोमार्थ शब्दों का व्यवहार तो निष्णात कवि कुशलतापूर्वक करता ही है, किन्तु यहाँ तो शब्दों के विलोमार्थ भी इतने सटीक हैं कि हृदय हिल्लोलित हो जाता है, यथा-दया-याद, राही-हीरा, राख-खरा, नदी-दीन, मान-नमा (नम्र) आदि । इनके अतिरिक्त कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है या फिर तोड़ कर ऐसे भाव व्यक्त किए गए हैं कि मन चमत्कृत होता है, जैसे- कुम्भकार- कु-पृथ्वी+भ=भाग्य+कार=विधाता; गदहा- गद =पाप+हा हन्ता; कृपाणकृपा+ण (न); मैं दो गला-मैं+दोगला, मैं गला दो; नारी- न+अरी (अरि) अर्थात् जिसका कोई अरि यानि शत्रु न हो या जो किसी की अरि न होः महिला मंगलमयः अबला-अवज्ञानज्योति+ला लानेवाली अथवा अन+बलाः स्त्रीस्=सहित+त्री (त्रि) तीन पुरुषार्थों --धर्म, अर्थ और काम से सहित; माता=प्रमाता होने से; सुता--सु=अच्छाई +ता=भाव इत्यादि स्त्री पर्यायवाची शब्दों की इन व्युत्पत्तियों से मातृ जाति के लिए आदर भाव भी व्यक्त किया गया है। इसी प्रकार कुछ अंकों से भी लोक प्रचलित भावों को प्रकट किया गया है, यथा--९९ से संसार-चक्र, ६३ से सामंजस्य और ३६ से वैमनस्य आदि। इसमें अनेक जैन और बौद्ध मन्त्र वाक्यों का उल्लेख भी प्रसङ्गवश इस प्रकार हुआ है कि वे बलात्, थोपे-से
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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