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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 195 तू समर्पणशीला हो गई तो वही तेरा उद्धार करेगा।' तदनन्तर रात- मिथ्यान्धकार में मिट्टी का चिन्तन चलता रहा कि उपयोग- सत्-ज्ञान और सत्-दर्शन से विषाद में उल्लास, उद्वेग में असंग प्रकाश, कषायों में मूर्छा और दोषों में ह्रास हो जाता है । साधक पथिक अहिंसा आदि व्रतों को पालने लगता है । आचारों के साम्य से साधक में सम्प्रेषणीयता आ जाती है और सम्प्रेषण से तत्त्वों-सात तत्त्वों का ज्ञान सम्पुष्ट होता है। कुम्भकार (गुरु) आता है । वह स्थितप्रज्ञ, अविकल्पी, हितमितभाषी तथा उदासीन है और कु=धरती (धरती के मनुष्यों) का भ=भाग्य+कार भाग्य विधाता है। उसने ओंकार को नमस्कार किया, अहंकार का वमन किया और पुन: कुदाली- कुशाग्र बुद्धि-से माटी के ऊपर की परत (अज्ञान की परत) हटाई और माटी के गालों पर घाव देखकर उसका कारण पूछा । मिट्टी ने खोदने वालों की निर्दयता और अपनी उदारता बताई। शिल्पी ने समझाते हुए कहा कि अति के बिना इति से साक्षात्कार नहीं होता और इति के बिना अथ का दर्शन सम्भव नहीं। तात्पर्य यह है कि अति ही पीड़ा की इति है और यह इति ही सुख का अथ है। ____ कुम्भकार ने मिट्टी को गदहे पर लादा । गदहे की पीठ पर रखी खुरदरी बोरी की रगड़ से उसकी पीठ छिल रही थी तो मिट्टी ने उसमें सनकर मानो मलहम लगाकर उसे सुख दिया। यह दयार्द्रता स्व-दया का स्मरण कराती है । दया का विलोम 'याद' भी इसी सत्य की ओर इंगित करता है। जैसे वासना का विलास मोह है, वैसे ही दया का विकास मोक्ष है । अत: वासना हेय है और दया उपादेय है। माटी की दया-भावना को देख गदहा सोचने लगा कि क्या ही अच्छा होता कि मैं भी सार्थक नाम हो जाऊँ - गद-दुख, हा= नाशक, अर्थात् पर-दुखहारी बनूँ । इस विचार में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की ध्वनि गूंज रही है । कुम्भकार (गुरु) का उपाश्रम (धर्मस्थल) योगशाला है, जहाँ साधक को प्रशिक्षण मिलता है । उपाश्रम आकर उसने मिट्टी को उतारा और चालनी (विवेक) से छान कर कंकड़ों (विभावों) को पृथक् किया। इस पर कंकड़ों को आपत्ति हुई। कुम्भकार ने कहा- 'मृदुता और ऋजुता मेरे शिल्प को निखारती है, तुम कठोर हो और वर्ण-संकरताजनक हो, अत: मैंने तुमको माटी से अलग किया है । जैसे क्षीर में नीर मिल कर क्षीर बन जाता है परन्तु उसी क्षीर में आक का क्षीर रूप विष मिल जाए तो क्षीर भी फटकर विष बन जाता है। तुम माटी में तो मिले, पर माटी न बने । हिमखण्ड पानी में तैरता ही रहता है । यह मान का द्योतक है । जल तरल है, ऋजु है, अत: बीज को अंकुरित करता है पर हिम उसे जला देता है। हिम की डली मुँह में डालने से प्यास और भड़कती है। राही को यदि हीरा बनना है तो मान छोड़ कर विलोम रूप से चले अर्थात् मान से नमा नम्र बने । तप की आग में राख होकर ही जीव खरा बनता है। ___ कुम्भकार (गुरु) मिट्टी को गीला करने के लिए कुएँ से जल लेने को रस्सी की ग्रन्थियाँ खोलता है। उसके दाँत हिल जाते हैं, मसूड़े छिल जाते हैं अर्थात् कठिनाइयाँ आती हैं । ठीक भी है, ग्रन्थियों में हिंसा पनपती है, अतएव गुरु निर्ग्रन्थ होते हैं। यदि रस्सी (गुरु भावना) में ग्रन्थि रहीं तो गिर्रा पर सन्तुलन बिगड़ने की भाँति गुरु की क्रिया में भी सन्तुलन बिगड़ जायगा । कुम्भकार की छाया कुएँ में एक मछली (एक सन्त्रस्त भव्य आत्मा) पर पड़ी, उसकी मूर्ना ऊर्ध्वमुखी हुई और वह बोली-'मेरा उद्धार करो!' कुम्भकार ने रस्सी से बालटी बाँधी और पानी के साथ वह भी बालटी के माध्यम से ऊपर आ जाती है। वहाँ कूप में मछली ने देखा था कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं। अस्त्र अस्त्र को काटता है, कृपाण में कृपा नहीं होती । यहाँ मछली के मिष कुम्भकार बड़ी ही मनोहर उद्भावनाएँ करता है कि आधुनिक युग में मानवता दानवता के रूप में तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना 'वसु एव कुटुम्बकम्' में बदल गई है, इत्यादि।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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