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अध्यात्म-विद्या का सागर : 'मूकमाटी' महाकाव्य
डॉ. विमल कुमार जैन अध्यात्म-विद्या-सागर सन्त कवि आचार्य विद्यासागर की काव्यकृति 'मकमाटी' एक ऐसा रूपक महाकाव्य है जिसके प्रबन्ध कथानक में अध्यात्म इतनी चारुता से सम्पृक्त है तथा जिसका निर्वहण आद्यन्त इतनी कुशलता से हुआ है कि कहीं भी विशृंखलता का आभास तक नहीं होता । इससे महाकवि की पारदर्शी दूरदृष्टि का परिचय मिलता
इसमें महाकाव्य के प्रायः सभी लक्षण उपलब्ध होते हैं, पर एकदम पारम्परिक न होकर, अपनी नवीनता के साथ। तदनुसार यह काव्य सर्गबद्ध है । रूपक होने के कारण इसका नायक कुम्भकार रूप गुरु तथा माटी रूप मुमुक्ष आत्मा नायिका है । नायक धीरोदात्त रूप में ही निरूपित है, क्योंकि आत्मा के उत्थान की प्रक्रिया में वह कहीं भी धैर्य नहीं खोता तथा सभी के प्रति उदात्त वृत्ति रखता है । नायिका भी तदनुकूला है । इसमें शान्त रस की प्रधानता है और शृंगार आदि रसों का प्रसंगानुकूल अंकन है । इसका उच्च उद्देश्य संसार-सागर में निमग्न आत्मा का उद्धार करना है। इसमें स्थान स्थान पर खलों की निन्दा और सन्तों की प्रशंसा भी है। इनके अतिरिक्त प्रकृति का चित्रण, सूर्य, चन्द्र, रजनी, दिवा, प्रातः, सन्ध्या, ऋतु, सागर तथा रण, मुनि, मित्र और पुनर्जन्म आदि का बड़ा ही विशद चित्रण है, जिसका निर्देश हम प्रसंगवश आगे करेंगे। इन लक्षणों तथा रूपक-निर्वहण की पुष्टि के लिए हम इसके कथानक पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं।
प्रथम खण्ड : रजनी का अन्तिम प्रहर है, सरिता तमसावृत धरातल पर बही जा रही है। कुछ क्षण पश्चात् सूर्य की रक्तिम आभा उस पर विचित्र चित्र बनाती है। इसी समय प्रभूत काल से धरागर्भ में सुप्त किन्तु उद्बुद्ध माटी धरती से कहती है- 'माँ ! मैं जन्म-जन्मान्तर से पतिता, पददलिता हूँ, इस पर्याय से मुक्ति चाहती हूँ।' धरती ने कहा'बेटा ! सत्ता शाश्वत है, प्रतिसत्ता में उत्थान-पतन की असंख्य सम्भावनाएँ रहती हैं। छोटा-सा वट बीज विशाल वृक्ष बन जाता है । इस प्रकार सत्ता ही भास्वत होती है । रहस्य की इस गन्ध का अनुपान आस्था की नासिका से होता है । अत: सर्वप्रथम आस्था- सम्यग्दर्शन की प्राप्ति परमावश्यक है ।' 'जैसी गति, वैसी ही मति' इस उक्ति के अनुसार साधक के बोध अर्थात् सम्यग्ज्ञान के निमित्त आस्था मूल कारण है । इससे साधक के मन में स्वरातीत अनहदनाद का सरगम ध्वनित होता है।
साधक अपने को लघुतम जानता हआ गुरुतम प्रभु को पहचानता है। असत्य के तथ्य की सही पहचान ही सत्य का अवधान है । आस्थाहीन का बोध पलायित हो जाता है और कषायें गुरनेि लगती हैं। अत: आस्था की दृढ़ता के लिए प्रतिकार, अतिचार, अनुकूलता की प्रतीक्षा और राग-द्वेष का त्याग अनिवार्य है। आस्थावान् यदि दमी, यमी और उद्यमी हो तो उसके आशा, धृति और उत्साह आदि गुण उद्गत हो जाते हैं तथा आत्म-विकास के लिए संघर्षमय जीवन भी हर्षमय हो जाता है।'
धरती के इस उद्बोधन से माटी को कुछ अन्त:प्रकाश-सा भासित हुआ । वह बोली- 'प्रकृति और पुरुष के सम्मिलन, विकृति और कलुष के संकुलन से आत्मा में सूक्ष्म कर्मों का बोध होता है तथा कर्मों का संश्लेषण और आत्मा से स्व-पर कारणवश विश्लेषण रूप ये दोनों ही कार्य आत्मा में ममता तथा समता रूप परिणति पर ही होते हैं । यही आस्था है।'
धरती बोली- 'बेटा ! तू मेरे भाव तक पहुंच गई। तेरा उद्धार समीप ही है। कुम्भकार (गुरु) आएगा और यदि