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________________ 196 :: मूकमाटी-मीमांसा मिट्टी ने मछली को समझाया कि बेटा ! यही तो कलियुग की पहचान है । सत् को असत् मानना ही कलियुग है और सत् को सत् मानना सत्-युग है । कलियुग की दृष्टि व्यष्टि पर रहती है और सत्-युग की समष्टि पर । कलि शव है, सत् शिव है। व्याधि से आधि और आधि से उपाधि भयंकर है, अत: उपाधि इष्ट नहीं, समाधि ही इष्ट है । यह सुनकर मछली समाधि अर्थात् सल्लेखना ग्रहण करना चाहती है। धरती के कहने पर कुम्भकार उसे पुन: जल में उतार देता है। द्वितीय खण्ड : शीत काल की रात है, शिल्पी (कुम्भकार) मिट्टी सानने में व्यस्त है पर शरीर पर केवल एक चादर है। मिट्टी ने कहा-'आप एक कम्बल तो ले लो।' शिल्पी ने उत्तर दिया कि यह तो कम बल वालों का कार्य है। मैं तो शीतशील हूँ और ऋतु भी शीतशीला है । स्वभाव में रहना ही मेरा कर्म है-'वस्तुस्वभावो धर्म:'। पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है। __ मिट्टी मौन हो गई। प्रात: हुआ और कुम्भकार मिट्टी को गूंधने लगा तो कुदाली से क्षत-विक्षत हुआ एक काँटा बदला लेने को उद्यत हो गया। तभी मिट्टी ने उसे उद्बोधित किया कि बदले में आग होती है, जो तन-चेतन को जला देती है। यह सुनकर वहीं खड़ा हुआ गुलाब का पौधा बोला-काँटे को बुरा न कहो। कभी फूल शूल बन जाते हैं और कभी शूल फूल । इन काँटों से ही मैं सुरक्षित हूँ। तत्पश्चात् शिल्पी ने जैसे ही मिट्टी के लोदे को चक्र पर रखकर उसे घुमाया तो मिट्टी ने संसार का स्वरूप समझाते हुए कहा- 'संसरतीति संसार:'- संसार संसरणशील है, अत: मैं चार गतियों और चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करती आ रही हूँ । मिट्टी से घड़ा बना और उसे चाक से उतारा । उस पर अनेक अंक तथा चित्र अंकित किए, यथा-९९, ६३, ३६, सिंह-श्वान, कच्छप-खरगोश, ही-भी आदि । इनसे क्रमश: संसार चक्र, सामंजस्य, वैमनस्य, स्वतन्त्र-परतन्त्र, अप्रमाद-प्रमाद और एकान्तवाद (दुराग्रह) तथा अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) का बोध दिया । कुम्भ पर ये वाक्य भी लिखे हुए हैं- ‘कर पर कर दो, ‘मर हम मरहम बनें', 'मैं दो गला' अर्थात् मैं दो गला हूँ अथवा मैं को गला दो। अब शिशिर में ही वसन्त का अन्त होता है और निदाघ पदार्पण करता है । यहाँ निदाघ और वसन्तान्त का क्रमश: बड़ा ही मनोज्ञ और उद्दाम वर्णन है । ऐसा लगता है कि कवि की लेखनी ने स्वयं सरस्वती बनकर पत्रों पर ऋतुओं को उतार दिया है। तृतीय खण्ड : वर्षा ऋतु आ गई है। जल, धरा का वैभव लूट कर सागर में ले गया है, जिसने उसका संग्रह कर लिया है। संग्रह ही परिग्रह है और परिग्रह मूर्छा है। सूर्य से जड़धी-जलधि का यह अन्याय देखा न गया और उसने उसके जल को जलाकर वाष्प बनाना प्रारम्भ किया। इस विग्रह में चन्द्र ने जलतत्त्व का पक्ष लिया और जलधि में ज्वार ला दिया। धरती ने कृतघ्न समुद्र को क्षमा कर उसे मोती दिए। इससे चन्द्र और भी क्रुद्ध हुआ और समुद्र को प्रेरित कर तीन बदलियों को भिजवाया । यहाँ पर बदलियों का बड़ा ही मनोरम चित्रण है । वास्तव में कवि ने बदलियों के मिष नारी के विविध रूपों का निरूपण किया है । 'नारी' नारी इसलिए है कि उसका कोई शत्रु नहीं है और न वह किसी की शत्रु है । मंगलमय होने से वह 'महिला' है । पुरुष में अव-ज्ञानज्योति या अब-वर्तमान में लाती है, अत: 'अबला' है या इसलिए अबला' है कि वह बला नहीं है । धर्म, अर्थ और काम- इन पुरुषार्थों में पुरुष का साथ देने से वह 'स्त्री' है। प्रमातृ होने से 'माता' है तथा उसमें सुन्दर भाव रहने से 'सुता' है। बदलियों ने अपने उज्ज्वल पक्ष को पहचाना और समुद्र का साथ न देकर मोती बरसाए। कुम्भकार कहीं बाहर गया हुआ था। मुक्ता-वर्षा का समाचार सुनकर राजा सदल-बल आ गया, उसने मोतियों को बोरियों में भरने का आदेश दिया । बादलों को यह बुरा लगा, वे गरजने लगे । एक ध्वनि आई : 'अनर्थ,अनर्थ' अर्थ की उपलब्धि स्वयं श्रम करके करो। सज्जन पर-द्रव्य को मिट्टी समझते हैं-'परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।' मोतियों (मोतियों के लोभ) ने बिच्छू बनकर
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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