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188 :: मूकमाटी-मीमांसा
निस्सन्देह आचार्यजी एक सच्चे साहित्यकार हैं। वे दार्शनिक भी हैं। अत: साहित्यकार एवं दार्शनिक की यह मिश्रित दृष्टि त्रिकालदर्शी तो है ही, साथ ही इसमें भारतीय संस्कृति की सही झलक मिलती है। उपर्युक्त दोनों दृष्टियों के मिश्रण से ही यह अनुपम कृति सम्भव हो सकी है, ऐसा मेरा विश्वास है । यहाँ पर कतिपय विद्वान् यह प्रश्न उठा सकते हैं कि आचार्यजी ने तो एक महाकाव्य प्रस्तुत किया है, कोई दर्शन पद्धति नहीं। इस सम्बन्ध में मेरा विनम्र निवेदन है, और जैसा कि ऊपर कहा भी है, साहित्यकार एवं दार्शनिक की दृष्टि समान होती है, भेद केवल अभिव्यक्ति में होता है । शाश्वत सत्यों की व्याख्या एवं अभिव्यक्ति तो देश एवं काल के साथ भी भिन्न-भिन्न होती है । आचार्यजी ने उन शाश्वत सत्यों की अभिव्यक्ति काव्यात्मक भाषा में की है जिसके आधार पर इस समस्त समाज की भीति निर्मित हुई है और जिनमें मानव कल्याण निहित है।
मेरे विचार से यह ग्रन्थ 'मूकमाटी' केवल साहित्य का ही ग्रन्थ नहीं है । इसमें आज के पीड़ित जनमानस के लिए एक गहरा सन्देश दिया गया है । वर्ण-लाभ अर्थात् अपने सही रूप को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में संकर-दोष अर्थात् विकृति आ गई है, उसे दूर करना होगा। आचार्यजी की अभिलाषा है कि सभी जन विकृतियों को दूर कर वर्ण-लाभ करें। इस कृति के द्वारा आचार्यजी कह रहे हैं कि अपने आपको सुधारो, भोग से हटकर योग को अपनाओ । इसी में तुम्हारा कल्याण है, अन्यथा सर्वनाश । यह श्रमण परम्परा को नवजीवन प्रदान करने का अद्भुत प्रयास है।
जहाँ तक इस महाकाव्य की भाषा का सम्बन्ध है, मैं यह कह सकता हूँ कि इसकी भाषा सरल एवं भावों से भरी हुई है। यह हमारे बोलचाल की भाषा है । स्थान-स्थान पर लोक प्रचलित मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग भावों की अभिव्यक्ति को सर्वग्राही बनाता है । देखिए इसका उदाहरण :
"और सुनो!/यह सूक्ति सुनी नहीं क्या ! 'आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का'।" (पृ.१३५) सारांश में कहा जा सकता है कि 'मूकमाटी' एक काव्य कृति ही नहीं है, इसमें एक जीवन दर्शन है । विकृतियों से भरे समाज में यह ग्रन्थ विद्वज्जन एवं सामान्य मनुष्य दोनों के लिए लाभकारी है।
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पृष्ठ ३०९ फिरबायें हाय में कुम्भ लेकर,..... प्राय: रसी पर टिठता है।
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