________________
माटी और जीवन यथार्थ से जुड़ी कविताओं का महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. हौसिला प्रसाद सिंह आज के अनास्थावादी युग में धर्म-दर्शन और अध्यात्म की विचार सरणि को जहाँ एक ओर मानव समाज और जीवन ने पूरी तरह से नकार दिया है वहाँ विश्व की सामान्य जनता को पुन: नए सिरे से इस ओर आकृष्ट करके उसकी यथार्थता का परिज्ञान कराना एक युगान्तकारी घटना है । आचार्य श्री विद्यासागरजी का महाकाव्य 'मूकमाटी' इसी युगान्तकारी घटना का प्रतिरूप है, जिसमें उन्होंने इस घटना को माटी और शिल्पी की सांगरूपकता द्वारा अभिव्यंजित किया है । यह घटना आज के समकालीन व्यक्ति-चरित्रों के भीतर परत-दर-परत रूप में छिपी हुई कुण्ठित और जर्जरित चेतनाओं, विचारों, संवेदनाओं और मूल्यों की यथार्थता को जिस रूप में सम्प्रेषित करती है, वह सराहनीय अवश्य है । आज के मनुष्य का जीवन व्यस्तताओं का पुंज बना हुआ है । उसके पास रचना के लिए समय नहीं है । यदि इस व्यस्त जीवन में से मनुष्य कुछ समय निकाल भी लेता है तो उसका उपयोग वह किन सन्दर्भो-अर्थों के लिए करता है, यह एक विचारणीय बिन्दु है । इस समय का उपयोग यदि व्यक्ति लोककल्याण के लिए करता है तो उससे श्रेयस्कर व्यक्ति कोई नहीं हो सकता । आचार्यजी एक ऐसे ही लोककल्याणी व्यक्ति और मुनि हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन लोककल्याण की भावना से अभिभूत है। लोककल्याणी व्यक्ति वह होता है जिसे सामान्यजन की विशेष चिन्ता रहती है। आचार्यजी इसी के प्रतिरूप हैं। उनका 'मूकमाटी' एक महाकाव्य है । इसमें कुल चार खण्ड हैं जो माटी रूपी जीव के जीवन के चार प्रस्थानों की कथा कह डालते हैं। वे उस जीव की कथा को महत्त्व नहीं देते हैं जिनके पास अपार धनराशि है । वे उस जीव की कथा को सामने रखते हैं जिसे लोग ‘सामान्यजन' कहते हैं। इस सामान्यजन को आज भी उच्चवर्गीय लोक अकिंचन, तुच्छ, पद दलित और अस्पृश्य मानते हैं। यही पद दलित और सर्वहारावर्ग इस 'मूकमाटी' की प्रमुख पात्र है। आज की विकासात्मक स्थिति में भी यह वर्ग उतना ही शोषित है जितना इसके पूर्व समय में था । प्रश्न उठता है कि क्या अब भी उसको मुक्ति मिल सकती है ? रचनाकार इसका समाधान खोजता है । वर्ण, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, भाषा, प्रान्त और देश के भेद हमने बनाए हैं। यह जीव संसारी मनुष्यों की विकृतिप्रधान चेतना की उपज है । माटी इसी चेतना की प्रतीक है।
'मूकमाटी' एक पुनर्जागरण चेतना से युक्त महाकाव्य है जो अपने विस्तृत फलक के भीतर उन मानवीय चेतनाओं को संगुम्फित किए हुए है जिसकी डोर पकड़कर सामान्यजन अपनी मुक्तिकामी चेतना को आज भी निरन्तर विकसित कर सकता है। यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि रचनाकार जिस सामान्यजन को अपनी रचनाधर्मिता का अंग बनाना चाहता है उसका जुड़ाव इसी माटी और माटी से जुड़ी धरती या लोक से है । वह माटी की मुक्तिकामना को सामान्यजन की मुक्तिकामना से जोड़कर देखता है। वह माटी की विवशता, दु:खमयता और दयनीयता को सामान्यजन की विवशता, दुःखमयता और दयनीयता मानता है। उसके लिए जो माटी की छटपटाहट और पीड़ा है वही सामान्यजन की पीड़ा लगने लगती है । इस पीड़ा की प्राप्ति जागरण के अभाव में ही होती है । रचनाकार सामान्यजन की इस पीड़ा से क्षब्ध होता है और उसका उपाय ढूँढ़ता है और निष्कर्ष निकालता है कि धर्म, दर्शन और अध्यात्म ही वह वस्त है जो सामान्यजन में विवेक उत्पन्न कर सकता है। यही विवेक सामान्यजन की मुक्ति का उपाय बन सकता है बशर्ते उसका जुड़ाव और लगाव धर्म, दर्शन और अध्यात्म से हो । एक बात और है कि रचनाकार का मुख्य सरोकार केवल धर्म-दर्शन और अध्यात्म की महत्ता का प्रतिपादन करना ही नहीं है वरन् उसके माध्यम से व्यक्ति-चरित्र की उन न्यूनताओं की ओर संकेतित भी करना है जिसके कारण आज भी सामान्यजन या दलितजन परतन्त्रता की मुक्तिकामी चेतना से स्वयं को