________________
शाश्वत सत्य की काव्यात्मक अभिव्यक्ति : 'मूकमाटी'
डॉ. एच. एन. मिश्र
-
भारतीय संस्कृति अनवरत रूप से चली आ रही दो भिन्न परम्पराओं - वैदिक परम्परा एवं श्रमण परम्परा का मिश्रित रूप है । कतिपय भिन्नताओं के होते हुए भी इन परम्पराओं का अन्तिम लक्ष्य एक ही है - इस संसार-चक्र से मुक्ति । सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए दोनों परम्पराओं में मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास किया गया है। भौतिकता से छुटकारा पाकर इस जीवन को दिव्य बनाना ही हमारा परम धर्म है । अत: जब कोई विचारक मनु के इस वाक्य 'नास्तिको वेदनिन्दकः' ' का अक्षरश: अनुसरण करके जैन धर्म को नास्तिक कहता है तो वह अपने विचारों में संकीर्णता का परिचय देता है । दृष्टि में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद, आचरण में अहिंसा एवं व्यवहार में अपरिग्रह का जो उपदेश देता हो, उसे नास्तिक कहना वैचारिक दिवालियापन का ही परिणाम कहा जा सकता है। जैन धर्म द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को न स्वीकार करने के कारण भी कुछ विचारक इसे नास्तिक दर्शन की संज्ञा देते हैं। प्रश्न यह है कि ईश्वर के अस्तित्व को क्यों स्वीकार किया जाय ? विश्व की वैचारिक परम्पराओं का सूक्ष्म अवलोकन हमें इस निष्कर्ष पर ले जाता है कि ईश्वर के अस्तित्व को विचारकों ने मुख्य रूप से दो ही उद्देश्यों के लिए स्वीकार किया है - विश्व की रचना एवं मनुष्य के भले-बुरे कर्मों का फल देकर उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना । जैन विचारकों के अनुसार यदि ईश्वर को इस विश्व का रचनाकार मान लिया जाता है तो वह उन्हीं दोषों का भागीदार होगा जो मनुष्य पर आरोपित किए जाते हैं। इस अशुभ से युक्त विश्व की रचना करने वाला शुभ रूप किस प्रकार माना जाय ?
जैन विचारकों ने मनुष्य को जो आत्मनिर्भरता एवं आत्मसम्मान की रक्षा सिखलाई वह अन्य दर्शन पद्धतियों में देखने को नहीं मिलती। अपने जीवन को सुधारने एवं मुक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को न ईश्वर की कृपा की आवश्यकता है, न उसका बेटा बनने की और न उसका बंदा बनकर एक नौकर की भाँति उसकी सेवा करना आवश्यक है । यद्यपि महात्मा बुद्ध ने यह कहा था कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी मुक्ति स्वयं प्राप्त करनी है किन्तु उनके अनुयायियों ने उन्हें बोधिसत्व के रूप में स्थापित करके, उसके द्वारा ही समस्त प्राणियों की मुक्ति की कामना की, क्योंकि उनकी मान्यता है कि बोधिसत्व अपने को तब तक मुक्त नहीं समझता जब तक संसार के सभी प्राणियों को मुक्ति नहीं मिल जाती । अत: महात्मा बुद्ध ने जिस मनुष्य को 'अप्पदीवो भव' की सलाह दी थी, उसी को उनके अनुयायियों ने परमुखापेक्षी बना डाला । जैन धर्म प्रवर्तकों तीर्थंकरों ने मनुष्य को कभी भी यह नहीं कहा कि वे उसको मुक्ति दिलवाएँगे । उन्होंने हमारे सामने उदाहरण प्रस्तुत करके हमें आत्मसम्मान के साथ जीना सिखलाया । मनुष्य स्वयं ही अपना भाग्य विधाता है । वह अपने प्रयासों के फलस्वरूप ही सांसारिक दुःखों से छूटेगा। वह स्वयं सक्षम है उस लक्ष्य को प्राप्त करने में जो उसके जीवन का चरम आदर्श है । अपने प्रयासों को सफल बनाने में उसे 'ईश्वरप्रणिधानम्' की आवश्यकता नहीं है । मनुष्य ईश्वर का दास नहीं है । वह अपने में निहित शक्तियों का विकास करके स्वयं ईश्वर का दर्जा प्राप्त कर सकता है । यह है मनुष्य के आत्मसम्मान की कहानी, जिसे जैन मुनि कहते ही नहीं हैं, वरन् स्वयं जीते भी । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन, केवल दर्शन नहीं है, वह जीवन दर्शन है ।
प्रस्तुत कृति 'मूकमाटी' में आचार्य विद्यासागरजी ने मानव जीवन के प्रति जैन चिन्तन को केवल अभिव्यक्ति ही नहीं दी है वरन् इस मानववादी चिन्तन में निहित सत्यों की व्याख्या मौलिक ढंग से करने का प्रयास किया है। आचार्य इस मौलिकता को शब्दजाल में न फँसाकर सरल एवं हृदयग्राही ढंग से प्रस्तुत किया है। चार खण्डों में विभाजित एवं ४८८ पृष्ठों में समाहित यह महाकाव्य रचनाकार की अद्भुत कल्पना एवं सृजनशीलता का परिणाम है । जैन