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मूकमाटी-मीमांसा :: 185 चेतना थक-सी रही तब/मैं मलय की बात रे मन ।” 'मूकमाटी' का सर्जक जीवन-संघर्षों से अपरिचित नहीं है । अपितु वह भलीभाँति जानता है कि संघर्ष ही जीवन है। जीवन का होना' कभी मिट नहीं सकता। पर उसे आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य इस जीवन को सही ढंग से क्यों नहीं जीता ? वह उलटी रीति और जोंक की गति से क्यों चलता है ? सर के बल भागने की चेष्टा क्यों कर रहा है ? वह भी तब, जबकि मनुष्य के पास शलाका पुरुषों, महान् विभूतियों द्वारा प्रदर्शित पावन पथ है । कवि के शब्दों
0 "होने का मिटना सम्भव नहीं है, बेटा!/होना ही संघर्ष-समर का मीत है
होना ही हर्ष का अमर गीत है।" (पृ. १५०) “सर के बल पर क्यों चल रहा है,/ आज का मानव ? इस के चरण अचल को चुके हैं माँ !/आदिम ब्रह्मा आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का/आज अभाव नहीं है माँ !/परन्तु, उस पावन पथ पर/दूब उग आई है खूब !/वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर/केवल कथनी में करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की/भीड़ के कारण !" (पृ. १५१-१५२) कवि की दृष्टि में, उदात्त मूल्यों को बिना अपनाए जीवन में समरसता लाना असम्भव है। 'मूकमाटी' के पात्र, चाहे मूकमाटी हो या कुम्भकार शिल्पी अथवा मंगल घट, सभी की अभिव्यक्तियों में उदात्त भावों और पावन मानव मूल्यों की छाया देखी जा सकती है। साक्षी कवि की :
० "सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में
सन्तों का पथ यही गाता है।" (पृ. १९०) __“जीवन का मुण्डन न हो/सुख-शान्ति का मण्डन हो,/इन की मूर्छा दूर हो
बाहरी भी, भीतरी भी/इन में ऊर्जा का पूर हो।” (पृ. २१४)
० "अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो।" (पृ. ४६७) और माटी, पानी एवं हवा को स्वस्थ बनाने की चेष्टा करना, मात्र वातावरण की शुद्धि नहीं, अपितु स्वस्थ समाज का निर्माण है :
"माटी, पानी और हवा/सौ रोगों की एक दवा।" (पृ. ३९९) कवि की यह सूक्ति यह सिद्ध करती है कि समाज में फैली अराजकता, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण और विभिन्न प्रकार के उन्मादी रोगों का शमन, चित्त की शुद्धि, सचेतन प्रयास, वातावरण के निर्मलीकरण, जीव और आत्मा के उदात्तीकरण से ही सम्भव हो सकता है । इस प्रकार 'मूकमाटी' धरती को स्वर्ग बनाने अथवा स्वर्ग को धरती पर लाने की चेष्टा करने वाला अद्भुत महाकाव्य है। महावाराह की तरह इस मूकमाटी रूपी पृथ्वी का उद्धार, लोक जीवन का परिष्कार, बाह्य एवं आभ्यन्तरिक वातावरण की परिशुद्धि एवं सानन्द तथा सार्थक जीवन की कल्पना इसके महत् उद्देश्य हैं। अथवा, यह पावन उद्देश्य से पूरित वह महाकाव्य है जिसमें भाषा की परिपक्वता है, शैली की रोचकता है और धर्म तथा लोक जीवन के समन्वय का सार्थक प्रयास है।