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________________ 184 :: मूकमाटी-मीमांसा कवि की यही साहित्यिक चेतना जब वेतनभोगी नौकरशाहों, सुविधाभोगी राजनीतिज्ञों और जन-जीवन से कटे बुद्धिजीवियों की ओर जाती है तो वह सिहर उठता है और पुकार कर कहता है कि बिना त्याग, मरण-वरण और धर्म का ध्वज फहराए धरती सानन्द, सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकती । कवि के शब्दों में : "वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं और चेतन वाले तन की ओर/कब ध्यान दे पाते हैं ?/इसीलिए तो.' राजा का मरण वह/रण में हुआ करता है/प्रजा का रक्षण करते हुए,/और महाराज का मरण वह/वन में हुआ करता है/ध्वजा का रक्षण करते हुए जिस ध्वजा की छाँव में/सारी धरती जीवित है सानन्द सुखमय श्वास स्वीकारती हुई !" (पृ. १२३) जीवन को स्वस्थकर बनाने के लिए कवि द्वारा प्रयुक्त अनुभवजन्य सूक्तियाँ उसके लोकजीवन से सम्पृक्त होने की सूचक हैं। उदाहरणार्थ : “आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव । तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) इसी प्रकार : "आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का।" (पृ. १३५) आज का जीवन विज्ञान प्रेरित हो गया है। सर्वत्र अस्त्रों-शस्त्रों की होड़ लगी है। शीत युद्ध की सरगर्मी सर्वत्र व्याप्त है । परमाणु बमों से पृथ्वी के मिट जाने का खतरा सिर पर मण्डरा रहा है । अनेक प्रकार की स्वार्थपरक, भेदपरक, साम्प्रदायिक, आतंकवादी एवं विध्वंसक गतिविधियाँ चल रही हैं । ऐसी भयावह स्थिति में कवि की निम्न उत्प्रेरक पंक्तियाँ जीवन, जो रण बना हुआ है, उसमें अमृत रस घोलने का काम करती हैं : "सदय बनो !/अदय पर दया करो/अभय बनो !/समय पर किया करो अभय की अमृत-मय वृष्टि/सदा सदा सदाशय दृष्टि रे जिया, समष्टि जिया करो!/जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ!/अपना ही न अंकन हो/पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे/पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो!/जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का न मन दुखाओ!" (पृ. १४९) गीतमय शैली में सृजित सन्त कवि की ये मार्मिक पंक्तियाँ बरबस श्री जयशंकर प्रसादजी की 'कामायनी' की इन पंक्तियों की ओर ध्यान आकर्षित कर देती हैं : "तुमुल कोलाहल कलह में/मैं हृदय की बात रे मन ! विकल होकर नित्य चंचल/खोजती जब नींद के पल
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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