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मूकमाटी-मीमांसा :: 183
और / इतना कठोर बनना होगा / कि / तन और मन को / तप की आग में तपा-तपा कर / जला - जला कर / राख करना होगा
यतना घोर करना होगा / तभी कहीं चेतन - आत्मा / खरा उतरेगा ।
खरा शब्द भी स्वयं / विलोम रूप से कह रहा है - / राख बने बिना खरा-दर्शन कहाँ ?/रा" ख ंखरा ।” (पृ. ५६ )
'अहिंसा' धर्म तो जीवन का सार है । यह सामाजिक जीवन का सर्वाधिक स्वस्थ दार्शनिक पक्ष है । किसी के प्रति भी दुर्भावना न रखना ही अहिंसा है। अहिंसा जैन धर्म और साहित्य की विजय पताका है। इसकी साधना का अर्थ है-अपने भीतर से हर प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों को निकाल बाहर करना । सब प्राणियों के प्रति प्रेम रखना इसका ऊँचा आदर्श है । जहाँ अहिंसा नहीं, वहाँ शान्ति कदापि स्थापित नहीं हो सकती । सन्त कवि इस धर्मतत्त्व को इतना जीवन्त मानता है कि इसे उपास्य देवता के रूप में सम्बोधित करता है । कवि के शब्दों में
:
"हमारी उपास्य देवता / अहिंसा है / और / जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है । / अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है / और / निर्ग्रन्थ
- दशा में ही अहिंसा पलती है,/पल-पल पनपती, / ... बल पाती है ।" (पृ. ६४)
कवि की दृष्टि बड़ी ही पैनी है। वह जानता है कि अहिंसा से ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उच्च भाव मन में बनता है। पर ऐसे धनलोभी लोगों के लिए, जिन्हें धन ही कुटुम्ब बन गया है, करारा व्यंग्य कसता है :
"वसुधैव कुटुम्बकम्" / इसका आधुनिकीकरण हुआ है
वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना / आज / धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।" (पृ. ८२)
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कवि के अनुसार साहित्य का उद्देश्य सार्थक जीवन का निर्माण है। साहित्य सामाजिक हित की भावना लिए हुए है। आज के साहित्य - चिन्तकों की मान्यता है कि बिना सामाजिक हित के कोई भी साहित्य सही मायने में साहित्य नहीं कहला सकता । 'मूकमाटी' के सर्जक की भी ऐसी ही मान्यता है । इस सम्बन्ध में कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
“हित से जो युक्त-समन्वित होता है / वह सहित माना है / और सहित का भाव ही / साहित्य बाना है, / अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/ सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/ अन्यथा, / सुरभि से विरहित पुष्प - सम सुख का राहित्य है वह / सार - शून्य शब्द - झुण्ड'!
इसे, यूँ भी कहा जा सकता है / कि / शान्ति का श्वास लेता
सार्थक जीवन ही/ म्रष्टा है शाश्वत साहित्य का ।
इस साहित्य को / आँखें भी पढ़ सकती हैं / कान भी सुन सकते हैं
इस की सेवा हाथ भी कर सकते हैं / यह साहित्य जीवन्त है ना !" (पृ. १११ )