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174 :: मूकमाटी-मीमांसा
"सकल कलाओं का प्रयोजन बना है/केवल/अर्थ का आकलन-संकलन । आजीविका से, छो"छी"/जीभिका-सी गन्ध आ रही है, नासा अभ्यस्त हो चुकी है/और/इस विषय में, खेद हैआँखें कुछ कहती नहीं।/किस शब्द का क्या अर्थ है,
यह कोई अर्थ नहीं रखता अब!" (पृ. ३९६) कई तरह के उपचार बताए जाते हैं, किए जाते हैं । आचार्य-कवि अपनी ओर से एक महान् उपचार बताते हैं- 'श, स, ष' इन तीन बीजाक्षरों के उच्चारण के साथ पूरी शक्ति लगाकर, श्वास को भीतर ग्रहण करना और उसे नासिका से निकालना ओंकार ध्वनि के रूप में (पृ. ३९८)।
यह भीतरी उपचार बताकर अन्तत: उपचार का बाहरी आयाम बताया जाता है एक नई शब्द-शक्ति के साथ:
"भूत की माँ भू है,/भविष्य की माँ भी भू ।/भाव की माँ भू है, प्रभाव की माँ भी भू ।/भावना की माँ भू है,/सम्भावना की माँ भी भू । भवानी की माँ भू है,/भूधर की माँ भू है,/भूचर की माँ भी भू। भूख की माँ भू है,/भूमिका की माँ भी भू ।/भव की माँ भू है, वैभव की माँ भी भू,/और/स्वयम्भू की माँ भी भू ।/तीन काल में तीन भुवन में/सब की भूमिका भू ।/भू के सिवा कुछ दिखता नहीं भू भू "भू"भू"/यत्र-तत्र-सर्वत्र "भू ।
'भू सत्तायां' कहा है ना/कोषकारों ने युग के अथ में !" (पृ. ३९९) इस तरह भू की बेटी माटी से सेठ की चिकित्सा प्रारम्भ हुई। छनी हुई काली माटी में नपा-तुला शीतल जल मिला कर एक लोंदा बनाकर सेठ के सिर पर टोप की तरह रखा गया। तत्काल वह गीली मिट्टी सेठ के मस्तक में व्याप्त गर्मी को सोखने लगी । सेठ की चेतना लौटने लगी, मुँह से ओंकार ध्वनि निकलने लगी, चेहरे पर मुस्कान छा गई।
यहाँ कवि परा-वाक्, मूलोद्गमा, ऊर्ध्वानना पवन की चर्चा करते हैं जो पश्यन्ती के रूप में उभरती है, हृदयमध्य में मध्यमा कहलाती है और वही वैखरी के रूप में अन्तर्जगत् से बहिर्जगत् की ओर यात्रा प्रारम्भ करती है।
माटी के उपचार से सेठ ठीक होने लगते हैं। गीली मिट्टी की गोलियाँ-सी आँखों और नाभि पर रखी जाती हैं। कुम्भ के परामर्श पर धीरे-धीरे सेठ जी बिलकुल स्वस्थ हो जाते हैं । इस अहिंसापरक चिकित्सा पद्धति का उपकार मानते हुए सेठ सभी चिकित्सकों को धन देकर विदा करते हैं।
माटी के प्रभाव से रोगी सेठ के ठीक होने से स्वर्ण कलश उदास हो जाता है । स्वर्ण-रजत जैसे मूल्यवान् पात्रों में हड़कम्प-सा मच जाता है । कुम्भ यह देखकर आश्चर्य प्रकट करता है । और फिर स्वर्ण आदि मूल्यवान् वस्तुओं की
ओर से सेठ के विरुद्ध षड्यन्त्र प्रारम्भ होता है । कवि-कथाकार समसामयिक वातावरण के अनुरूप कथा को यहाँ प्रतीकात्मक एक नया मोड़ देते हैं।
स्वर्ण कलश आतंकवाद को बुलावा भेजता है, सेठ के परिवार और उनके प्रिय माटी के कुम्भ को नष्ट करके अपने बैर का बदला लेने के लिए । सेठ के घर में स्वर्ण कलश की घोर गर्जना सुनाई दी :
"एक को भी नहीं छोडूं,/तुम्हारे ऊपर दया की वर्षा/सम्भव नहीं अब,