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मूकमाटी-मीमांसा :: 173
सही पुरुषार्थ है ।" (पृ. ३४९)
और सेठ श्रीगुरु से विदा लेता है। वियोग की तीव्र भावना अब भी उसका साथ नहीं छोड़ती। सेठ घर लौटता है । सारा परिवार हर्ष में डूबा है परन्तु सेठ के मुख पर अब भी विरह की उदासी है।
उसकी उदासी देखकर मंगल कुम्भ उसे तरह-तरह से समझाता है, नई सारपूर्ण बातें सुनाता है । कुम्भ की बातों से प्रभावित होकर सेठ आदेश देता है - 'प्रभु-पूजन को छोड़कर इस पक्ष में अतिथि के समान माटी के पात्रों का उपयोग होगा ।' यह घोषणा सुनकर स्वर्ण से लेकर पीतल तक के धातु पात्रों में ईर्ष्या और द्वेष की आग जल उठी । वे सोचते हैं कि माटी के कुम्भ को इतना आदर-सम्मान और हम बहुमूल्य पात्रों का इतना अनादर ! सेठ यह आक्रोश सुनता है और कुछ सिद्धान्त - सुभाषित सुनाकर उन्हें शान्त कराने का प्रयत्न करता है । परन्तु वे मूल्यवान् धातुपात्र अपने अभिमान और ईर्ष्या को नहीं छोड़ते । प्रतीकात्मक रूप में कवि अपनी लेखनी से यहाँ धन-वैभव के अहंकार और अकिंचनता के क्षमाभाव का सूक्ष्म विवेचन करता है :
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'आज तक / न सुना, न देखा / और न ही पढ़ा, कि
स्वर्ण में बोया गया बीज/ अंकुरित होकर / फूला - फला, लहलहाया हो पौधा बनकर // हे स्वर्ण - कलश ! / दुखी - दरिद्र जीवन को देखकर जो द्रवीभूत होता है / वही द्रव्य अनमोल माना है ।
दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का ? / माटी स्वयं भीगती है दया से और/औरों को भी भिगोती है। / माटी में बोया गया बीज समुचित अनिल-सलिल पा/ पोषक तत्त्वों से पुष्ट - पूरित सहस्र गुणित हो फलता है ।" (पृ. ३६५)
और फिर यह प्रतारणा भी :
"परतन्त्र जीवन की आधारशिला हो तुम, / पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम / और / अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६)
कवि मशाल और दीपक की तुलना करता है। स्वर्ण को मशाल तथा माटी को दीपक की उपमा देता है । इस कठोर वार्तालाप से कुम्भ को आन्तरिक वेदना होती है क्योंकि वह बहस उसी के निमित्त से हुई थी। वह अपने आपको धिक्कारता है । अचानक स्फटिक की झारी बोल पड़ती है, कुम्भ को ताने सुनाते हुए । कुम्भ उसका समाधान करने का प्रयत्न करता है । यहाँ जितनी भी वस्तुएँ मौजूद हैं, सभी मुखर हो उठती हैं अपनी-अपनी बात कहने के लिए। सभी का एक उद्देश्य था, माटी के पात्र कुम्भ का उपहास करना ।
उस रात निद्रा की गोद में पूरा परिवार सो गया परन्तु सेठ को चैन नहीं था । उसे तेज़ ज्वर चढ़ आया था। एक मच्छर और एक खटमल सेठ का रक्त चूसने के लिए आ पहुँचे। उनकी बातों से सेठ का मनोरंजन हुआ । परन्तु प्रातः होते-होते सेठ के ज्वर ने भीषण रूप धारण कर लिया। सारा परिवार चिन्तित हो उठा । तरह-तरह के चिकित्सक उपचार के लिए बुलाए गए। सभी ने एक मत से निर्णय दिया कि सेठ जी को 'दाह रोग' हुआ है । इन्हें चिन्ता छोड़कर शान्त हो जाना चाहिए । परिवार ने चिकित्सकों से अनुरोध किया कि वे सेठ की अधिक से अधिक अच्छी चिकित्सा करें, धन की परवाह न करें ।
यहाँ कवि धन पर, अर्थ पर एक मृदु कटाक्ष करता है :