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168 :: मूकमाटी-मीमांसा बटोरकर राजा को समर्पित करता है । कुम्भ अब चुप नहीं रह पाता, वह राजा को खरी-खरी सुनाता है।
"कलि-काल की वैषयिक छाँव में/प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने
वैश्ववृत्ति के परिवेश में-/वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य"!" (पृ.२१७) कुम्भ द्वारा राजा की यह प्रताड़ना कुम्भकार को नहीं रुची। उसने 'छोटे मुँह-बड़ी बात' कहने के लिए कुम्भ को आड़े हाथों लिया :
“लघु होकर गुरुजनों को/भूलकर भी प्रवचन देना/महा अज्ञान है दु:ख-मुधा, परन्तु,/गुरुओं से गुण ग्रहण करना/यानी/शिव-पथ पर चलेंगे हम,
यूँ उन्हें वचन देना/महा वरदान है सुख-सुधा।" (पृ. २१८-२१९) यह सुनकर राजा का उबाल शान्त होता है । वह कुम्भकार से मुक्ता-उपहार लेकर प्रयाण करता है और मुक्ताओं की दुर्लभ निधि से राजकोष और समृद्ध होता है।
उधर कुम्भ को नष्ट करने के बदले कुम्भकार के आँगन में मोतियों की वर्षा करके लौटती हुई बदलियों को देखकर सागर बहुत क्षुब्ध हुआ। उसने मन ही मन स्त्रियों के स्वभाव के बारे में बहुत कुछ कह डाला । सागर का यह उद्वेलन सुनकर सूर्य ने समुद्र में छुपे बड़वानल को सागर को जला डालने की आज्ञा दी । सागर ने बड़वानल से अनुरोध किया कि वह अनुचित कार्य न करे । परन्तु फिर भी सागर चुप नहीं बैठा। उसने प्रलय करने की ठानी। प्रलय मचाने के लिए उसने तीन रंग के बादलों का आह्वान किया- काले, गहरे नीले और कापोत-कबूतर के रंग वाले। ये तीन रंग प्रतीक हैं तीन अशुभ लेश्याओं के, जिनके वश में होकर संसारी प्राणी कुकृत्य करते रहते हैं। सागर के भेजे तीनों वर्ण के बादल सूर्य से जा मिले, और उसकी प्रताड़ना करने लगे :
"अरे खर प्रभाकर, सुन !/भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल देवता-ग्रह-/ग्रह-गणों में अग्र तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है/अरे उग्रशिरोमणि !
तेरा विग्रहयानी-/देह-धारण करना वृथा है।" (पृ. २३१) प्रभाकर सूर्य भी बादलों को फटकारता है और दोनों ओर से नोंक-झोंक चलती रहती है।
सूर्य पर कोई प्रभाव न होते देख सागर ने अपने मित्र राहु को याद किया सूर्य को ग्रहण लगाने के लिए। सागर ने राहु को अपनी रत्न-राशि का लालच दिया और राहु मान गया।
"सागर-पक्ष का समर्थन हुआ/राहु राजी हुआ, राशि स्वीकृत हुई सो"दुर्बलता मिटी/सागर का पक्ष सबल हुआ।/जब राहु का घर भर गया/अनुद्यम-प्राप्त अमाप निधि से ।
तब/राहु का सर भर गया/विष-विषम पाप-निधि से।" (पृ. २३६) राहु के बहाने आज की आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों पर कैसा करारा व्यंग्य है यह।
ग्रहणकाल आ गया। दिन का प्रकाश अवरुद्ध हुआ। भास्कर राहु के गाल में समा गया, चारों ओर भय का वातावरण छा गया। पक्षी डरकर अपने नीड़ों में जा छुपे । इस दृश्य को चित्रित करने में कवि की लेखनी चमत्कृत-सी