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मूकमाटी-मीमांसा :: 169
"काक - कोकिल - कपोतों में / चील - चिड़िया - चातक - चित में बाघ- -भेड़-बाज- बकों में / सारंग - कुरंग - सिंह - अंग में खग-खरगोशों-खरों-खलों में / ललित - ललाम - लजील लताओं में पर्वत - परमोन्नत शिखरों में / प्रौढ़ पादपों औ' पौधों में पल्लव- पातों, फल-फूलों में / विरह-वेदना का उन्मेष देखा नहीं जाता निमेष भी । " (पृ. २४० )
सूर्य को राहु से ग्रसित देखकर बादलों के दल के दल उमड़ पड़े प्रलयकारिणी वर्षा की भूमिका के रूप में ।
धरती पर यह अनर्थ होते देख इन्द्र अपना इन्द्र-धनुष लेकर गोपनीय रूप से प्रकट हुआ । उसने तीव्र बाण चलाकर बादलों के दलों को बिखेर दिया । बादलों ने क्रोधित होकर बिजली कड़कड़ाई तो इन्द्र ने अपना अमोघ अस्त्र वज्र बादलों पर फेंका। मेघों के मुँह से 'आह' की ध्वनि निकली। बादल चीखते हुए भागने लगे । बादलों की आह सुनकर सागर का रोष बढ़ा । उसने बादलों को उपलवृष्टि - ओलों की बरसात करने का आदेश दिया और फिर लघु-गुरु, अणुमहा, तरह-तरह के कोणों वाले बड़े-बड़े ओले बरसने लगे । ओलों से सौर मण्डल भर गया । इस स्थान पर कवि का चिन्तन अणु, सौर और भूमण्डल की शक्तियों की ओर मुड़ता है और 'स्टार वार' तक चला जाता है।
लेकिन कुम्भरूपिणी माटी पर इस भयानक उपल-वृष्टि का कोई प्रभाव नहीं होता ।
“इस प्रतिकूलता में भी / भूखे भू- कणों का साहस अद्भुत है, त्याग-तपस्या अनूठी ! / जन्म- -भूमि की लाज / माँ - पृथिवी की प्रतिष्ठा दृढ निष्ठा के बिना / टिक नहीं सकती।” (पृ. २५२ )
इस अवसर पर काँटे भी वाचाल हो उठते हैं और आए संकट को ललकारते हैं। तभी फूल और पवन भी शिल्पी के पक्ष का समर्थन करते हुए बादलों को प्रताड़ित करते हैं । पवन प्रबल वेग से बादलों को बिखरा देते हैं और धूप फर निखर आती है । वातावरण पुनः आनन्द और मंगलमय हो जाता है। सूर्य किरण रूपी अपने सहस्रों करों को फैला कर शिल्पी की पलकों को सहलाता है । स्वस्थ कुम्भकार से कुम्भ कहता है :
" परीषह - उपसर्ग के बिना कभी / स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी / त्रैकालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६ )
इसके बाद परम उत्साहित कुम्भकार कुम्भ को आग की नदी पार करने का आह्वान करता है, जिसके लिए कुम्भ पूर्णत: प्रस्तुत है । तीसरा खण्ड यहीं समाप्त होता है ।
'मूकमाटी' का चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक से प्रकट होता है। यह खण्ड घटनाचक्रों से भरपूर है तथा तीव्र गति से चरम तक पहुँचता है ।
अवा यानी भट्ठी में लकड़ियाँ सजाई जाती हैं। इन लकड़ियों में बबूल की लकड़ी भी है जो कुम्भकार से अपनी आत्म-वेदना कहती है कुछ दार्शनिकता के साथ, और फिर कुम्भ को अग्नि परीक्षा के लिए जलाने को तैयार हो जाती
है ।
अग्नि प्रकट होती है और कहती है- 'मैं दूसरों की परीक्षा लेती हूँ परन्तु मेरी परीक्षा कौन लेगा ?" “अपनी कसौटी पर अपने को कसना / बहुत सरल है, पर