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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 167 अनन्त संकल्प-विकल्पों से/कल्प-कालों से।” (पृ. १७६) इस तरह एक महान् सत्य का उद्घाटन होता है । इसी भाव भूमि पर तपन और वसन्त की चर्चा विस्तार से होती है और 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' शीर्षक वाला दूसरा खण्ड समाप्त होता है। तीसरे खण्ड का शीर्षक है 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' तीसरे खण्ड के प्रारम्भ में कवि प्रलय, समुद्र, चन्द्रमा और सूर्य को अपनी अलौकिक दृष्टि से नए अर्थ देता है और अर्थ के अनर्थ की ओर इंगित करता है । और जल तत्त्व और धरती के सम्बन्धों की दार्शनिक परिभाषा भी देता है : "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) इधर कुम्भकार को किसी विशेष कारणवश, तीन-चार दिनों के लिए माटी के बदले रूप कुम्भ को छोड़ कर बाहर जाना पड़ा । परन्तु वह तन अपने साथ ले गया था, मन तो माटी में ही था। इसी बीच कथा में एक नया मोड़ आया। कुम्भ के सूख जाने और दृढ़ हो जाने पर सागर चिन्तित था । एक ईर्ष्या-सी उसमें पैदा हो गई। उसने अपने अनुचर बादलों को कुम्भ को फिर से पानी से भिगोकर नष्ट करने के लिए भेजा । तीन बदलियाँ चल पड़ी कुम्भकार के उपाश्रम की ओर, तरह-तरह वे वर्गों की साड़ियाँ-सी पहने । पहले उन्होंने सूर्य को ढकने की कोशिश की परन्तु सफल नहीं हुईं। उन्हें सूर्य की प्रताड़ना सुननी पड़ी कि नारी होकर तुम प्रलय मचाने क्यों निकली हो ? नारी तो माँ होती है वह तो पालन करना जानती है, संहार नहीं। - "इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन-सारी मित्रता/मुफ़्त मिलती रहती इनसे ।/यही कारण है कि इनका सार्थक नाम है 'नारी'/यानी -/'न अरि' नारी अथवा/ये आरी नहीं हैं/सो"नारी"।" (पृ. २०२) ० "जो/मह यानी मंगलमय माहौल, महोत्सव जीवन में लाती है/महिला कहलाती वह ।" (पृ. २०२) नारी के बारे में यह उदात्त अभिव्यक्ति कवि के आचार्य रूप को और भी पूज्य बना देती है। सूर्य की ये बातें बदलियों के मन को बदल गईं। उन्हें अपने पति सागर का पक्ष अन्यायपूर्ण प्रतीत हुआ और उनकी आँखों से कुछ अश्रु जलकणों के रूप में धरती पर आ गिरे । वे थे मेघ-मुक्ताओं के रूप में । कुम्भकार के आँगन में मोतियों की वर्षा होने लगी। __इस आश्चर्यजनक घटना का समाचार राजा तक पहुँचा । राजा ने अपने अनुचरों को बोरियाँ लेकर भेजा कुम्भकार के आँगन से मोती बटोरने के लिए। तभी गगन-ध्वनि होती है जो उन्हें चेतावनी देती है कि बिना परिश्रम, बिना पुरुषार्थ के धन की लालसा करना पाप है । परन्तु अनुचर नहीं मानते और ज्यों ही मोती बटोरने के लिए आगे बढ़ते हैं, मोतियों को छूते ही उन्हें बिच्छू के डंक की वेदना होती है और उनके शरीर नीले पड़ जाते हैं। तभी कुम्भकार का आगमन होता है । राजा के अनुचरों की दुर्दशा देख कर उसे बहुत दुःख होता है । वह प्रभु से प्रार्थना करता है ओंकार ध्वनि के साथ। कुम्भकार ओंकार मन्त्र से अभिमन्त्रित जल उन विष-पीड़ित व्यक्तियों पर छिड़कता है। उनकी चेतना लौटती है और वे डरकर मोतियों से दूर जा खड़े होते हैं। कुम्भकार राजा से क्षमा-याचना करता है और स्वयं अपने हाथों से मोती
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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