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________________ 166 :: मूकमाटी-मीमांसा स्वर की नश्वरता और सारहीनता सिद्ध हुई तो करुणा उभर आई। वह परस्पर लड़ते इन सबको शान्त करने का प्रयत्न करती है और फिर अपने स्वभावानुसार छलक पड़ती है। तब शिल्पी सोचता है करुणा और शान्त रस के बारे में: "उछलती हुई उपयोग की परिणति वह/करुणा है/नहर की भाँति !/और उजली-सी उपयोग की परिणति वह/शान्त रस है/नदी की भाँति ! नहर खेत में जाती है/दाह को मिटाकर/सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है/राह को मिटाकर/सुख पाती है।” (पृ. १५५-१५६) फिर वात्सल्य रस और शान्त रस की तुलना अपने आप होने लगती है । रौंदन क्रिया पूरी होती है। चक्र घुमाकर शिल्पी माटी का लोंदा उस पर रखता है और लोंदा चक्रवत् घूमने लगता है। इस तरह घूमते हुए माटी के मन में संसारचक्र के बारे में कुछ प्रश्न उठते हैं। शिल्पी समझाता है : "चक्र अनेक-विध हुआ करते हैं/संसार का चक्र वह है जो राग-रोष आदि वैभाविक/अध्यवसान का कारण है; चक्री का चक्र वह है जो/भौतिक-जीवन के/अवसान का कारण है, परन्तु/कुलाल-चक्र यह, वह सान है/जिस पर जीवन चढ़कर अनुपम पहलुओं से निखर आता है,/पावन जीवन की अब शान का कारण है।" (पृ.१६१-१६२) तभी शिल्पी के उपयोग में कुम्भ का आकार उभरता है । प्रासंगिक प्राकृत होता है, ज्ञान ज्ञेयाकार होता है और ध्यान ध्येयाकार । शिल्पी कुम्भ को घृत से भरे घट जैसा आकार देकर धरती पर उतारता है। दो-तीन दिन के अवकाश से कुम्भ का गीलापन मिट जाता है। शिल्पी प्रसन्न होकर कुम्भ को हाथ में उठा लेता है और फिर हाथ में सोट लेकर कुम्भ की खोट पर चोट करता है। उसके बाद कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं का अंकन, विचित्र चित्रों का चित्रण तथा कविताओं का सृजन कुम्भ पर होने लगता है । यहाँ नौ की संख्या का रहस्य भी उद्घाटित होता है : "संसार ९९ का चक्कर है/यह कहावत चरितार्थ होती है इसीलिए/भविक मुमुक्षुओं की दृष्टि में/९९ हेय हो और ध्येय हो ९/नव-जीवन का स्रोत !" (पृ.१६७) फिर कुम्भ पर सिंह और श्वान का चित्रण होता है, दो विपरीत प्रकृति वाले प्राणियों का, जिनका विस्तृत वर्णन कवि की लेखनी करती है। फिर 'ही' और 'भी' ये दो अक्षर भी कुम्भ पर लिखे जाते हैं और 'एकान्तवाद' और 'अनेकान्तवाद' की चर्चा स्वाभाविक रूप से उद्भूत होती है। कुम्भ में जल का अंश शेष है अभी, उसे सुखाने के लिए तपी हुई खुली धरती पर रखता है कुम्भकार । "बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का,/विलय हो नहीं सकता और/बिना तप के जलत्व का, वर्षा का,/उदय हो नहीं सकता तप के अभाव में ही/तपता रहता है अन्तर्मन यह
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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