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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 165 मौन का यह सम्भाषण कितना मार्मिक है। परन्तु माटी को यह बात चुभ-सी जाती है। वह मौन को अपने मृदु ढंग से प्रताड़ित करना चाहती है । पर शिल्पी की नीली आँखें नीलिमा छिड़काती उसे शान्त कर देती हैं। तत्पश्चात् शिल्पी के अन्तर में तन और चेतन का द्वन्द्व शुरू होता है और कई नए आध्यात्मिक सत्यों का उद्घाटन होता है। फिर कुम्भकार के पद माटी को रौंदने लगते हैं कर्तव्यवश : "शिल्पी के पदों ने अनुभव किया/असम्भव को सम्भव किया-सम लगा, लगा यह मृदुता का परस/पार पर परख रहा है । परम-पुरुष को कहीं/जो परस की पकड़ से परे है।" (पृ. १२७) इस क्रिया के चलते माटी शिल्पकार से कुछ कहती है, उसे उत्साहित, प्रोत्साहित करती है। "रौंदन-क्रिया और गति पकड़ती है/माटी की गहराई में डूबते हैं शिल्पी के पद आजानु !/पुरुष की पुष्ट पिंडरियों से लिपटती हुई प्रकृति, माटी/सुगन्ध की प्यासी बनी चन्दन तरु-लिपटी नागिन-सी!" (पृ. १३०) और अनजाने ही शिल्पी के अस्तित्व में से वीर रस फूट पड़ता है। वह वीर्य शिल्पी से बातें करता है। वीरत्व और शिल्पी में बहस छिड़ती है, वीरत्व के ही बारे में । माटी हँसकर उनमें बीच-बचाव करती है। तभी हास्य रस छलक कर अपनी बात करता है और उसे माटी चुप करा देती है। _ अचानक शिल्पी की मति बिगड़ने लगती है और महासत्ता का महाभयानक रूप उसे दिखाई देता है । उस महा भयंकर दृश्य को देखकर शिल्पी की मति दहल जाती है । शिल्पी का अपनापन लौट आता है और वह उसे समझा कर शान्त करता है। यहाँ पाठक अनुभव करता है कि कवि ऐसी कोई स्थिति, ऐसा कोई भाव, ऐसा कोई शब्द अभिव्यक्त करने से नहीं चूकता जो एक नए अर्थ के उद्घाटन में उसका साथ देता हो । यहाँ मौन भी बोलता है, मति भी, हास्य, वीर और विस्मय रस भी । यहाँ शिल्पी का यह सम्बोधन कितना महत्त्वपूर्ण है : "एक बात और-/तन मिलता है तन-धारी को/सुरूप या कुरूप, सुरूप वाला रूप में और निखार/कुरूप वाला रूप में सुधार लाने का प्रयास करता है/आभरण-आभूषण शृंगारों से । परन्तु/जिसे रूप की प्यास नहीं है,/अरूप की आस लगी हो उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !" (पृ. १३९) तब शृंगार भी अपने बचाव में कुछ बोल पड़ता है और शिल्पी से नया सम्बोधन पाता है । शृंगार फिर स्वर की बात करता है और शिल्पी कहता है : “संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है/और प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है मेरा संगी संगीत है/सप्त-स्वरों से अतीत!" (पृ. १४४-१४५) एक आध्यात्मिक सन्त के सिवा भला ये शब्द और किसकी लेखनी से निकल सकते हैं ?
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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