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________________ 164 :: मूकमाटी-मीमांसा इसी के साथ माटी और कुम्भकार के बीच प्रकृति और पुरुष की दार्शनिक चर्चा प्रारम्भ होती है । कुम्भकार कहता है: "पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ. ९३) इस एक ही सूत्र से माटी के सारे ही प्रश्नों का समाधान हो जाता है। जल से सम्मिलन के बाद माटी का फूलना स्वाभाविक है। इसी फूली हुई मिट्टी से उस मंगलमय कुम्भ का निर्माण होगा। अचानक माटी की दृष्टि उस क्षत-विक्षत काँटे पर पड़ती है जो माटी की खुदाई के समय कुदाली के प्रहार से अपना तन खण्डित कर बैठा था । वह परख लेती है काँटे के मन में उठते बदले का भाव ! और माटी का सम्बोधन शुरू होता है काँटे के प्रति : "बदले का भाव वह दल-दल है/कि जिसमें/बड़े-बड़े बैल ही क्या, बल-शाली गज-दल तक/बुरी तरह फंस जाते हैं और गल-कपोल तक/पूरी तरह धंस जाते हैं।" (पृ. ९७) शूल को तब अपनी भूल का एहसास होता है और वह अपने बारे में, उसको स्पर्शित करनेवाले फूलों, लताओं एवं ललाम चामवालों के प्रति बहुत कुछ कह जाता है । उसकी हर उक्ति सत्य को नए ही रूप में प्रस्तुत करती है : "दम सुख है, सुख का स्रोत/मद दुःख है, सुख की मौत !/तथापि यह कैसी विडम्बना है,/कि/सब के मुख से फूलों की ही/प्रशंसा होती है, और/शूलों की हिंसा !/क्या यह/सत्य पर आक्रमण नहीं है ?" (पृ. १०२) इस शूल के मुख से उद्घाटित सत्य माटी को अभिभूत कर जाता है । इस चर्चा को कुम्भकार भी सुन रहा था । वह काँटे से अपनी भूल के प्रति क्षमा माँगता है । काँटे की सनातन चेतना इससे प्रभावित होती है : "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना/ही/मोक्ष का धाम है।” (पृ. १०९) उसके बाद लेखनी और साहित्य, वक्ता और श्रोता तथा नीर-क्षीर विवेक पर गम्भीर चर्चा होती है, जिसका शब्द-शब्द मननीय है । अब बारी आती है माटी को रौंदने की, वह भी हाथ से नहीं, पैरों से । पैरों से माटी को रौंदे बिना वह कुम्भ के निर्माण का उपादान नहीं बन सकती । इस रौंदने की क्रिया से कुम्भकार प्रसन्न नहीं है, यह उसकी विवशता है । वह झिझकता है । इस अवसर पर माटी भी मौन है और कुम्भकार भी मौन । तब ही यह मौन मुखर हो उठता है: "ओ माँ माटी!/शिल्पी के विषय में तेरी भी आस्था अस्थिर-सी लग रही है।" (पृ. ११९) और: "आस्था के बिना आचरण में/आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं। फिर,/आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है, यह बात भी ज्ञात रहे !" (पृ. १२०)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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