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मूकमाटी-मीमांसा :: 163
प्यास जाग चली/मछली के घट में!" (पृ. ६८) फिर कुम्भकार सावधानी पूर्वक बालटी कूप में छोड़ता है ताकि वहाँ के नाना जलचर जीवों का घात टाल सके। बालटी के पानी के क़रीब आते ही उस दृढ़ निश्चयी मछली को छोड़ कर सभी मछलियाँ भाग जाती हैं इधर-उधर । फिर उस मछली की अन्य मछलियों से धर्म चर्चा शुरू हो जाती है और दूसरी मछली के मुँह से ये शब्द निकलते हैं :
"कहाँ तक कहें अब!/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर।/और प्रभु-स्तुति में तत्पर/सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है
प्रभु-पथ पर चलनेवालों को ।/समय की बलिहारी है !" (पृ. ७३) जहाँ तनिक भी अवसर मिलता है कवि सम-सामयिक समाज पर, उसके दोषों पर मीठी चुटकी लेने से अपने आपको नहीं रोक पाता । और फिर बाहर आने को उत्सुक मछली कूप के जल से बालटी के पानी में कूद कर बालटी के साथ ऊपर आ जाती है बाहर, धूप में । बाहर आकर मछली सुख-झरी रूप के नन्दन वन को देखती है।।
कुम्भकार साफ़ सुथरे खादी के दोहरे वस्त्र से पानी छानने लगता है कि उसकी दृष्टि पानी से उछलती और माटी के पावन चरणों में गिरती मछली की ओर जाती है । मछली की आँखों से हर्षाश्रु झर रहे हैं।
___ मछली और माटी माँ का वार्तालाप शुरू होता है। समय परिवर्तन के साथ-साथ धन की बढ़ती लालसा के बारे में वह कुछ कहती है और फिर मछली, माँ माटी से आग्रह करती है कि वह भी कुछ कहे । माटी कहती है :
"समझने का प्रयास करो, बेटा !/सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं भीतरी घटना है वह/सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा!
और/असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !" (पृ. ८३) यह युगों की बिलकुल ही नूतन परिभाषा अध्यात्म का सन्देश सुनाती हुई अन्तरतम में प्रवेश करती है। उसके बाद अन्य अनेक उपदेशों से माटी मछली को कृतार्थ करती है और कुम्भकार से निवेदन करती है :
“इस भव्यात्मा को/कूप में पहुँचा दो/सुरक्षा के साथ अविलम्ब ! अन्यथा/इस का अवसान होगा/दोष के भागी तुम बनोगे
असहनीय दुःख जिसका/फलदान होगा!" (पृ. ८८) कुम्भकार माटी के आदेश का पालन करता है और वस्त्र में जो अन्य जलीय जन्तु शेष बचे थे, उनके साथ मछली को भी बालटी में शुद्ध जल डाल कर कूप में सुरक्षित पहुँचा देता है । कूप में 'दयाविसुद्धो धम्मो' की पावन ध्वनि
गूंज उठती है।
यहीं पर 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' नामक पहला खण्ड समाप्त होता है।
दूसरा खण्ड प्रारम्भ होता है शिल्पी के माटी में निर्मल जल मिलाने से । शिल्पी जल मिली माटी को कुछ समय के लिए रख देता है । वह शिशिर ऋतु की ठण्डी रात है जिसे शिल्पी एक पतली-सी सूती चादर से खुशी-खुशी काट देना चाहता है। यह स्थिति माटी के मन में प्रश्न खड़े करती है और वह कुम्भकार से अनुरोध करती है :
“काया तो काया है/जड़ की छाया-माया है/लगती है जाया-सी. सो"/कम से कम एक कम्बल तो""/काया पर ले लो ना !" (पृ. ९२)