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162 :: मूकमाटी-मीमांसा
यहाँ कवि यह सिद्ध कर देता है कि दया के बिना अध्यात्म कोरा है, कार्यकारी नहीं । और फिर माटी कुम्हार के उपाश्रम, उसकी कार्यशाला पर पहुँचती है।
कुम्हार मृदु माटी से कठोर कंकरों को अलग करता है, चालनी से छान कर । जब कंकर कुम्हार से प्रश्न करते हैं कि उन्हें अलग क्यों किया जा रहा है, हमारा माँ माटी से वियोगीकरण किस कारण हो रहा है ? तो कुम्हार क्षमायाचना -सी करता है
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"संकर - दोष का / वारण करना था मुझे
सो / कंकर - कोष का / वारण किया ।" (पृ.४६ )
कंकरों को फिर भी शिकायत बनी रहती है। वे किसी भी स्थिति में माँ माटी का साथ छोड़ना नहीं चाहते । उनके समाधान के लिए कुम्हार को उन्हें और तरह से समझाना होता है । वे फिर भी नहीं मानते तो अन्त में माटी को ही उन्हें समझाना पड़ता है :
"संयम की राह चलो / राही बनना ही तो / हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही / विलोम रूप से कह रहा हैरा" ही हीरा ।” (पृ. ५६-५७ )
माटी का यह उपदेश कंकरों को स्वीकार होता है और वे संयम की राह पर चलने का संकल्प करते हैं ।
अब माटी के कुम्भ बनने की क्रिया प्रारम्भ होती है । पहले माटी को जल देकर फुलाना है । जल के लिए कुम्भकार कूप के पास जाता है । बालटी को कूप में भेजने के लिए उलझी रस्सी को सुलझाने का यत्न करता है और इस यत्न में वह थक-हार-सा जाता है। तब वह दन्त पंक्ति का उपयोग करता है उस उलझी रस्सी की गाँठ खोलने के लिए, परन्तु तब भी सफलता नहीं मिलती ।
" फिर भी ! इस पर भी !!/ गाँठ का खुलना तो दूर, / वह हिलती तक नहीं प्रत्युत, / शूलों के मूल ही / लगभग हिलने को हैं / और / शूलों की चूलिकाएँ टूटने - भंग होने को हैं ।" (पृ. ६१)
तब रसना काम आती है। वह अपनी प्रताड़ना और लार से रस्सी के अस्तित्व को हिला देती है और दाँत वह गाँठ खोल देते हैं। संसार - यात्रा की उलझनों और कठिनाइयों की सहज क्रियाओं को प्रतीकात्मक माध्यम से कवि ने यहाँ प्रस्तुत किया और प्रतीकात्मक रूप से ही मार्ग दिखाया है:
"हमारी उपास्य देवता / अहिंसा है / और / जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है । / अर्थ यह हुआ कि
ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है / और / निर्ग्रन्थ- दशा में ही
अहिंसा पलती है, / पल-पल पनपती, / बल पाती है।” (पृ. ६४)
कुम्भकार का अगला कर्म है उस कूप से जल निकालना, जिसमें एक मछली बाहर आने के लिए छटपटा रही है । यह प्रतीकात्मक छटपटाहट है बन्धनयुक्त आत्मा के बन्धन से मुक्त होने की :
" नश्वर प्राणों की / आस भाग चली / ईश्वर प्राणों की