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आधुनिक हिन्दी काव्य साहित्य की अद्भुत कृति : 'मूकमाटी'
दर्शन लाड़ आचार्य विद्यासागर का कवि रूप आधुनिक हिन्दी साहित्य के लिए आज एक स्पृहणीय वस्तु बन चुका है। आचार्यश्री ने अध्यात्म को कविता से कुछ इस तरह जोड़ा है कि भाषा में एक नई आभा प्रकट हो रही है, और उस आभा का एक ज्वलन्त उदाहरण है आचार्यश्री का नूतन काव्य 'मूकमाटी'।
यह स्वाभाविक ही था कि अपने भीतर आत्मिक रूप से प्रकट होती ज्ञान-सरिता के उद्वेलन को व्यक्त करने के लिए, आचार्यश्री में छुपे कवि को अभिव्यक्ति का कोई माध्यम बार-बार चाहिए और उसी अभिव्यक्ति के प्रतीक हैं उनके 'नर्मदा का नरम कंकर, 'तोता क्यों रोता, 'डूबो मत,लगाओ डुबकी' काव्य और 'मूकमाटी' जैसा महाकाव्य ।
परन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ, 'मूकमाटी' आचार्यश्री के पिछले काव्यों से बहुत कुछ भिन्न है। 'मूकमाटी' में प्रतीकों की ऐसी अद्भुत काव्य कथाएँ हैं जिनका उदाहरण हमें आधुनिक हिन्दी काव्य साहित्य में मिलना दुर्लभ है।
'मूकमाटी' की कथा मूल रूप से मिट्टी की कथा है जो धरती माँ की बेटी है और माँ की ही तरह त्याग और सहनशक्ति का प्रतिरूप है। त्याग, विराग और तप की आधार भूमि लेकर यह प्रतीक-भावनात्मक कथा आगे बढ़ती है।
नर्म-कोमल माटी को उस कुम्भकार की प्रतीक्षा है जो उसके वर्तमान रूप को एक नया आकार देगा, कुम्भ के रूप में। 'कुम्भ' रूप माटी का वह मंगल कलश, जो संसार के दुःखी प्राणियों के लिए दुःखों से मुक्ति का साधन बनता है और अनेक व्यथा-बाधाओं को पार करके दूसरों को भी भव बाधा से पार करा सकता है।
___ माटी, इसी उदात्त उद्देश्य को हृदय में रखकर कुम्हार के आगमन की प्रतीक्षा करती है। कुम्हार आता है, कुदाली से कोमलांगी माटी को खोदकर निकालता और बोरी में भर कर अपने उपाश्रम ले जाता है, एक गदहे की पीठ पर लादकर । परन्तु गदहे की पीठ पर लदी, बोरी में भरी माटी को अपने कारण गदहे को होने वाले कष्टों का अनुभव होता है :
"...गदहे की पीठ पर ।/खुरदरी बोरी की रगड़ से/पीठ छिल रही है उसकी और/माटी के भीतर जा/और भीतर उतरती-सी/पीर मिल रही है।"
___ (पृ. ३४-३५) और इसी पीर में खोने के बाद :
"बोरी में से माटी/क्षण-क्षण/छन-छन कर/छिलन के छेदों में जा मृदुतम मरहम/बनी जा रही है,/करुणा रस में/सनी जा रही है। इतना ही नहीं,/उस स्थान में/बोरी की रूखी स्पर्शा भी
घनी मृदुता में/डूबी जा रही है।" (पृ. ३५-३६) माटी इन्हीं विचारों-भावनाओं में डूबी अनुकम्पा के उस उत्कर्ष पर जा पहुँचती है :
"दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है। परन्तु/पर पर दया करना/बहिर्दृष्टि-सा "मोह-मूढ़ता-सा.. स्व-परिचय से वंचित-सा"/अध्यात्म से दूर"/प्राय: लगता है ऐसी एकान्त धारणा से/अध्यात्म की विराधना होती है ।" (पृ. ३७)