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________________ 160 :: मूकमाटी-मीमांसा धृति-धारिणी धरा का ध्येय है।” (पृ. १९३) माटी मानवीकृत रूप में प्रस्तुत की गई है । वह स्थूल तत्त्व मात्र नहीं है, अपितु उसकी रगों में संवेदना का रुधिर बह रहा है । यद्यपि वह मौन है, पर संन्यासी की क़लम से मूक को भाषा मिल गई है। अनबोल में बोल भर गया है। नारी, अबला और कुमारी नई अर्थ छवियाँ उद्घाटित हुई हैं । नारी भावना को एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है: “धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों से/गृहस्थ जीवन शोभा पाता है । इन पुरुषार्थों के समय/प्रायः पुरुष ही/पाप का पात्र होता है, वह पाप, पुण्य में परिवर्तित हो/इसी हेतु स्त्रियाँ/प्रयत्न-शीला रहती हैं सदा । पुरुष की वासना संयत हो,/और/पुरुष की उपासना संगत हो, यानी काम पुरुषार्थ निर्दोष हो/बस, इसी प्रयोजनवश/वह गर्भ धारण करती है। संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से/पुरुष को बचाती है सदा, अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके ।” (पृ. २०४) दान, पूजा, सेवा उसकी नियति होती है। वह देवी, माँ, सहचरी, प्राण है । सुता और दुहिता है । मातृरूप में वह सबकी जननी है। श्रमरहित और अनीतिपूर्ण धन-संग्रह वर्जित है । परिश्रम को भूख की ज्वाला में जलना होता है । बैठे-ठाले नवनीत का स्वाद लेते हैं । सामाजिक वैषम्य और विशेषत: आर्थिक असन्तुलन पर साधक मन का विकट प्रहार है : "परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २१२) विघटनकारी तत्त्वों से भी रचनाकार सजग है । युग की पीड़ा रचना में बोल उठी है। आतंकवाद के आतंक से व्यक्ति त्रस्त है : "मान को टीस पहुँचने से ही,/आतंकवाद का अवतार होता है। अति-पोषण या अतिशोषण का भी/यही परिणाम होता है, तब/जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं/बदले का भाव प्रतिशोध !" ___(पृ. ४१८) प्रतिशोध की ज्वाला में लोग जल रहे हैं। वस्तुत: जीवन-लक्ष्य से च्युत हो गए हैं। न्याय की वेदी पर अन्याय का ताण्डव चल रहा है । भक्षण में सभी लगे हैं । संहार की प्रवृत्ति पर एक ठहराव लगाना आवश्यक है । जादू-टोना आदि कृषिसंस्कृति की कतिपय स्थितियों को स्थान मिला है। 'मूकमाटी' युग सत्य का चित्रण है । भाषा में सम्प्रेषण शक्ति है । सन्त के मौन में युग का स्वर भर गया है। यही इसकी प्रासंगिकता है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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