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मूकमाटी-मीमांसा :: 159
है, मकरन्द के रूप में उतरता है। नर में नारायण की प्रतिष्ठा कवि की प्रतिज्ञा है। लघुता त्याज्य है और गुरुता स्वीकार्य । त्याज्य और स्वीकार्य की नाड़ी पढ़ लेने के बाद ही शुभ का सृजन सम्भव है।
सत्य और अहिंसा सन्तों का चरित्र होता है। मन की गाँठ हिंसा का गवाक्ष खोलती है । ग्रन्थिहीन दशा अहिंसा की भूमि प्रशस्त करती है। अहिंसा प्रेम से शून्य नहीं होती । वह भी प्रेम ही है, पर भिन्न प्रकार का प्रेम है । युग से एक प्रश्न है :
"क्या इस समय मानवता/पूर्णत: मरी है ?
क्या यहाँ पर दानवता/आ उभरी है ?" (पृ. ८१) मानवता में प्रेम और विश्वास होता है । दानवत्ता से दानवता शून्य होती है । व्यक्ति से समाज की ओर दृष्टि का गमन अनिवार्य है । व्यष्टि में समष्टि की धार का बहाव तथा समष्टि में व्यष्टि का अन्तर्गमन श्रेयस्कर है । प्रेम और क्षेम सन्तों का स्वभाव है । भारतीय संस्कृति में स्व और पर की सुख-शांति का सुन्दर और कोमल राग है।
'मूकमाटी' में रसों के उल्लेख हैं। काव्य या शास्त्रों की दृष्टि से भिन्न ढंग का रस बोध यहाँ है । विभाव, अनुभाव तथा संचारीभाव से आस्वाद के क्षण यहाँ नहीं जुड़ते हैं। वीर रस की स्थिति देखिए :
"इसके सेवन से/उद्रेक-उद्दण्डता का अतिरेक/जीवन में उदित होता है,
पर पर/अधिकार चलाने की/भूख इसी का परिणाम है ।" (पृ. १३१) रस की परिणति से अधिक यह वीर-भाव है। हास्य रस की कुछ ऐसी ही स्थिति है । पर एक विशेषता है कि रसों को एक सजीव आकार मिल गया है। जैसे :
__"रहस-रसातल में उबलता/कराल-काला रौद्र रस ।” (पृ. १३४) रौद्र रस का स्थायीभाव क्रोध है, वर्ण रक्त और देवता रुद्र है । शृंगार में कोमलता है । माधुर्य है । संन्यासी मन शृंगार के रग-रग में शृंगार देखता है । करुण और शान्त रसों की चर्चा भी हुई है। वात्सल्य और करुणा में एक जीवन का त्राण है और दूसरा प्राण।
___ अर्थ से परमार्थ नहीं तुल सकता । हाँ, परमार्थ से अर्थ की नई भूमि बन सकती है। परमार्थ से योग होने पर स्व (धन) से वियुक्ति होती है । और, सब रसों का अन्त शान्त में होता है :
“सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है।" (पृ. १६०) नए ढंग से रस-विभावन की प्रस्तुति हुई है । और, शान्त का रस-राजत्व घोषित किया है।
कतिपय वर्णों और शब्दों को दर्शन का नव्य अर्थ मिल गया है । भाषा-प्रवाह में कोई टूट नहीं आने पाई है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अर्थ खोला गया है। जल और मिट्टी में अन्तर है । वसुन्धरा को धरा तक समेट रखने में जल का विशेष योगदान है। धरा के रत्न को लूटकर वह रत्नाकर बना है। मोती सागर में उपजता है : “जल ही मुक्ता का रूप धारण करता है" (पृ. १९२) । किन्तु जिस सीपी में मोती का आकार पाता है वह धरा की अंशभूता है । पृथ्वी जड़ता तोड़ती है और मोती की निर्माण-प्रक्रिया में सहायिका बनती है :
"जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना,