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'मूकमाटी': संवेदना की साधना
डॉ. तालकेश्वर सिंह लोक मंगल की कामना से अभिभूत सन्त मन ने माटी की मूक वेदना में संवेदना और साधना का अमृत घोल दिया है। सन्तों में साधना की परिपक्वता भी होती है तथा प्रेम की भावमयी तरंगें भी मानस सरोवर में कल्लोल करती हैं। कल्लोल के कारण प्रेम जल बाहर छलक पड़ता है और संग पाने वाले जड़-चेतनों पर वही सुधा के रूप में बरस जाता है। सन्तकृपा की दृष्टि सीमा में आते ही जीव तृप्ति का अनुभव करता है। पर अतृप्ति ऐसी बढ़ती है कि वह पुन: पुन: सन्त दर्शन के लिए विकल हो जाता है । सन्त अनासक्ति के क्षणों में जीते हैं। वीतराग और कामना रहित होते हैं। सेवा उनका धर्म है। और, वह भी निष्काम सेवा; सकामता तो साधना की आग में कब की जल चुकी होती है । इसीलिए सन्त साधना के ताप का जीव को अनुभव होने नहीं देते और प्रेम झारी से उसका अभिसिंचन करते हैं। प्रतिष्ठित प्रज्ञ सन्त माटी की मूकता में वाणी की शक्ति का अभिनिवेश करता है । कवि और सन्त की क्रमश: रचनाशक्ति और विवेकदृष्टि पा कर 'मूकमाटी' संवेदना की मर्मकथा बन गई है। सामाजिक, राष्ट्रीय, ऐतिहासिक, धार्मिक और वैचारिक अन्तर्विरोधों को भुलाकर मानव प्रेम की संदेशवाहिनी बन गई है। पूर्वाग्रह मनुष्य को अलगाव के विजन वन में ठेलता है । अतएव मनुष्य को परमसत्ता की ओर से जो दायित्व सौंपा गया है, उसके निर्वाह के लिए, सही ढंग से सम्पादन के लिए कुछ करना होगा।
__भारतीय वाङ्मय में 'मूकमाटी' एक विशिष्ट देन है। हिन्दी की महत्त्वपूर्ण कृति है। काव्य मनुष्य का सार्वत्रिक स्वत्व है। वह अपने को व्यक्त करना चाहता है । विचार एवं भावाभिव्यक्ति के माध्यम से हजारों के अन्तर्मन में उतरता है । आत्माभिव्यक्ति के द्वारा आत्मान्वेषण के बिन्दुओं को पकड़ता है । स्व से असंग होकर विश्वबोध से जुड़ता है। विश्व साहित्य के व्यापक फलक पर अपनी रचना के मिष एक अमिट लकीर खींचना चाहता है । सन्तवाणी से एक साहित्यिक दिक् का निर्माण होता है जिसमें विश्व के कवि और लेखक एक दूसरे से संलाप करते हैं। दूरी मिटती है और एक नई पहचान बनती है । साहित्य वह भूमि है जिस पर कला का सम्पूर्ण विभावन उभरता है । राष्ट्रीय साहित्य की अन्विति को सन्त एक नया आयाम देता है । मनुष्य के ज्ञान से अज्ञान का तम फट जाता है । सार्वत्रिक मानव मूल्य की अभिव्यक्ति तथा विश्वजनीन कलात्मक प्रक्रिया में सहभागिता के आधार पर रचना का मूल्यांकन होना चाहिए।
___ मनुष्य का जातीय इतिहास और भूगोल विकास की दृष्टि से भिन्न होता है । कला के भावन का कोई एक आधार बनाना कठिन है । पर मानव दृष्टि के आधार पर उनकी परख हो सकती है । माटी की अन्तर्व्यथा 'मूकमाटी' में करुणा की कोमल रागिनी बन गई है।
प्रकृति से रूबरू होकर कवि का रचना-मन उसका रमणीय चित्र खींच रहा है । इस रमणीयता में एक दर्द है। दर्द के मर्म में ऊषा का आलोक फैल रहा है। निशा का अन्धकार अब धीरे-धीरे रिस रहा है। प्राची के अधर पर मधुर मुस्कान की रेखाएँ खेल रही हैं। प्रकृति के प्रांगण में मन्द, मधुर तथा शीतल पवन अर्थात् त्रिविध बयार का बहाव जारी है। जीवन के बहाव से प्रकृति के इस बहाव का अद्भुत मेल है :
“मन्द-मन्द/सुगन्ध पवन/बह रहा है;/बहना ही जीवन है बहता-बहता/कह रहा है:/लो!/यह सन्धि-काल है ना!
महक उठी सुगन्धि है/ ओर-छोर तक, चारों ओर ।" (पृ. २-३) बाहर की सुगन्ध से तेज़ भीतर की सुगन्ध होती है, जो गुरु कृपा से अन्तर में बहती है।