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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 157 माटी को ‘मूकमाटी' में स्त्रियोचित चरित्र प्रदान कर काव्य की नायिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । मूक भाषा में अपनी मूक वेदना माटी कहती है । यहाँ साधना का बल नहीं, अन्तर्व्यथा की शक्ति है । नारी के गुणों से संवलित माटी कहती है : 1 " और, संकोच - शीला / लाजवती लावण्यवती - / सरिता - तट की माटी अपना हृदय खोलती है/ माँ धरती के सम्मुख ! / " स्वयं पतिता हूँ और पातिता हूँ औरों से,/ अधम पापियों से / पद - दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ४) निष्ठुर पद दलन को मिट्टी बर्दाश्त करती है । पृथ्वी सब कुछ अपने ऊपर धारण करती है । उसके धीरज की परीक्षा सम्भव नहीं है । मिट्टी उसी की पुत्री है। अपनी पीड़ा को, मूक व्यथा को किसी से प्रकट नहीं करती। किन्तु जिस ममता और धैर्यशीलता की कोख से उत्पन्न है, उससे अपनी पीड़ा की कहानी कहती है। पीड़ा के मूक को संकेत में नहीं, स्पष्ट भाषायी आकार देती है । निवेदन के स्वर में बोलती है : ... " कुछ उपाय करो माँ ! / खुद अपाय हरो माँ ! और सुनो,/ विलम्ब मत करो / पद दो, पथ दो / पाथेय भी दो माँ ! " (पृ. ५) वस्तुत: यह जो माटी की पीड़ा है वही धरा की पीड़ा है और जो धरा की पीर है वही माटी की पीर है। माटी की पीर और पीर की माटी की व्यंजना से सन्त मन जन-जन को एक सन्देश देना चाहता है । सहिष्णुता माटी की पीड़ाव्यंजना में साकार हो गई है । काव्य भाषा को एक प्रतीक मिल गया है । दृग-बिन्दु झर रहे हैं। मिट्टी और धरा में कोई पार्थक्य नहीं है। दोनों में कोई रिक्त नहीं है । यदि अलगाव, अभाव या रिक्त है भी तो वह क्रमश: अन्विति, भाव तथा पूर्ति में पर्यवसित हो रहा है । जैन दर्शन के अनुकूल सत्ता की शाश्वतता को धरा मुखरित करती है। पंचभूतों में पृथ्वी का गुण गन्ध है। पृथ्वी की गन्ध ही फूलों में सुगन्ध बनती है । और प्रकार की गन्धों में पृथ्वी तन्मात्रा के रूप में विद्यमान रहती है। बादल बरस हैं अर्थात् जल तत्त्व मेघों के अन्तर से बरसकर परिवर्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुज़रता है। धूल में मिलकर दलदल में बदल जाता है, नीम की जड़ों में गिर कटुता अंगीकार करता है तथा सागरीय जल से सम्पृक्त होकर लवणयुक्त बन जाता है। सीपी में मोती बनता है । सन्त के भीतर का उपदेशक यह बतलाता है कि संगति के अनुकूल निर्माण कार्य सम्पन्न होता है । आस्था सबसे बड़ी चीज़ होती है । आस्था, विश्वास और श्रद्धा के अभाव में साधना पथ सुलभ नहीं हो सकता । साधना-पथी आस्था से शुरू करता है तथा विश्वास की प्रक्रिया से गुज़रता हुआ श्रद्धा के बिन्दु तक पहुँचता है। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में आस्था खुरदुरी प्रतीत होती है। जैन साधु ने स्पष्ट शब्दों में साधना - वीथी का निरूपण किया है। किन्तु काव्य के लिए साधना और दर्शन अपने मूल रूप में उपयोगी नहीं बन पाते । सहज संवेद्य और सम्प्रेष्य होने के लिए मानवीय संवेदना से उनका आर्द्र होना अनिवार्य है । संवेदना से शून्य दर्शन और साधन काव्यभूमि से छिटक जाते हैं । सत्य तक पहुँचने के लिए असत्य की पहचान अपेक्षित है। विद्या से परिचित होने के लिए अविद्या को जानना ज़रूरी है । इसलिए सत्य-असत्य और विद्या अविद्या से परिचय अनिवार्य है । 'ईशावास्योपनिषद्' का एक मन्त्र है : “विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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