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: मूकमाटी-मीमांसा
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... जहाँ देखो वहाँ ओले / सौर- मण्डल भर गया !
... ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है / तो इधर नीचे मनु की शक्ति विद्यमान !” (पृ. २४६-२४९)
“ये अपने को बताते / मनु की सन्तान !" (पृ. ३८७)
जड़ यान्त्रिकता एवं उसका विरोध :
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“प्रलय के दिनों में / जल की ही नहीं,
अग्नि की वर्षा भी / तेरे ऊपर हुई कई बार !" (पृ. ३७३)
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सर्वचेतनावाद - साम्यभाव :
'ऊपर यन्त्र है, घुमड़ रहा है / नीचे मन्त्र है, गुनगुना रहा है एक मारक है/एक तारक; / एक विज्ञान है / जिसकी आजीविका तर्कणा है, एक आस्था है / जिसे आजीविका की चिन्ता नहीं, / एक अधर में लटका है उसे आधार नहीं पैर टिकाने,/ एक को धरती की शरण मिली है यही कारण है,... / ... ऊपरवाले का दिमाग चढ़ सकता है तब वह / विनाश का, / पतन का ही पाठ पढ़ सकता है।" (पृ. २४६ )
"बड़ी कृपा होगी, / बड़ा उपकार होगा, / सब में साम्य हो, स्वामिन्!” (पृ.३७२) " दूसरों से प्रभावित होना / और / दूसरों को प्रभावित करना,
इन दोनों के ऊपर / समता की छाया तक नहीं पड़ती।” (पृ. ३७७)
"आज- जैसा प्रभात / विगत में नहीं मिला
और/ प्रभात आज का / काली रात्रि की पीठ पर
हलकी लाल स्याही से/ कुछ लिखता-सा है, कि
यह अन्तिम रात है / और / यह आदिम प्रभात;
यह अन्तिम गात है/ और / यह आदिम विराट् !” (पृ. १९)
सम्पूर्ण विश्व विषमताग्रस्त- त्रस्त है । समरसता का अभाव है । कटुता, तुच्छता, घृणा, विद्वेष, प्रतिशोध और संहार की वृत्तियों से मानव समाज आवृत है। प्रसाद ने इनका नग्न नृत्य अपनी दृष्टि- कल्पना से देखा था। उनकी श्रद्धा अपने पुत्र को सन्देश देती है :
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"सब की समरसता का कर प्रचार, / मेरे सुत ! सुन माँ की पुकार ! "
'मूकमाटी' के स्रष्टा ने धरती के आँचल पर फैले गहरे अन्धकार से साक्षात्कार किया है । उनकी 'अग्निपरीक्षा' में इसकी गहरी ‘शोकाकुल मुद्रा' 'पाप की पालड़ी' में बैठ 'अनर्थ का फल-रस' चख रही है :
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"इधर धरती का दिल / दहल उठा, हिल उठा है,
अधर धरती के कैंप उठे हैं / धृति नाम की वस्तु वह / दिखती नहीं कहीं भी । चाहे रति की हो या मति की/ किसी की भी मति काम नहीं करती।” (पृ. २६९)