________________
150 :: मूकमाटी-मीमांसा
स्थापना के लिए श्रीकृष्ण के लौकिक मानवी चरित्र में सेवा, प्रेम, परोपकार की पूर्ण अभिव्यक्ति दिखलाई है । श्रीकृष्ण एवं राधा में संचित परम्परागत चरित्रों के स्थान पर क्रान्तिदर्शी मानव चरित्र का अंकन किया है। इन दो महान् चरित्रों द्वारा उन्नत-बलिष्ठ-कर्मनिष्ठ मानवी आदर्श चरित्र की स्थापना की गई है। 'मूकमाटी' में कवि ने भी माटी, पृथिवी और कुम्भकार के आत्मप्रकाश में ऐसे ही लोकोपकारी विचारों की वर्षा की है। इनके वर्णन में कवि की रसोपलब्धि इस बात का दावा करती है कि कवि लेखनी की दृष्टि माया छाया लोक पर नहीं है, अपितु कर्मलोक पर है। ये तीनों और कई अन्य चरित्र भी जीवन बोध को कल्याणप्रवणता की ओर ले कर चल रहे हैं।
मूकमाटी के मुख से निकली 'मंगल कामना की पंक्तियाँ' किस प्रकार कवि के उद्देश्य की ओर बढ़ रही हैं,
देखिए:
“यहाँ‘"सब का सदा / जीवन बने मंगलमय छा जावे सुख-छाँव,/ सबके सब टलें - / अमंगल - भाव,
सब की जीवन लता / हरित - भरित विहँसित हो
गुण के फूल विलसित हों / नाशा की आशा मिटे आमूल महक उठे/་“बस ।” (पृ. ४७८)
कार्य की दिशा एवं दृष्टि से दोनों उद्देश्य में एकरूपता है।
नायकत्व की दृष्टि से और अभिधात्मक सामान्य अर्थ की दृष्टि से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' और 'मूकमाटी' के मूल एक जैसी मिट्टी पर खड़े हैं। 'साकेत' में सम्पूर्ण कथा का नेतृत्व और अभीष्ट फल की प्राप्ति उर्मिला के हाथ में है । अभिनव मान्यता नारी के नेतृत्व का समर्थन करती है। आधुनिक काल में इस परिवर्तन की एक शक्तिशाली धारा प्रवाहित हुई है। 'यशोधरा', 'कामायनी', 'नूरजहाँ', 'वैदेही वनवास' तथा और कई ग्रन्थों की सम्पूर्ण भूमि में नेतृत्व - ध्वज नारी के हाथों में दिखाई पड़ता है ।
आचार्य विद्यासागर ने अपने ग्रन्थ 'मूकमाटी' में इसे ही नायकत्व - दण्ड अर्पित किया है। "और" इधर." नीचे/निरी नीरवता छाई” (पृ. १) से 'अनिमेष निहारती - सी / मूकमाटी' (पृ. ४८८) तक यानी रचना के प्रारम्भ से विराम तक मूक माटी है । 'मूकमाटी' में वह नेतृत्व के संचालक - सूत्र अपने हाथों में रखती है। अनुमान के आधार पर कहने का कुछ सहारा बटोरकर यह कहना, उचित होगा या नहीं, यह मैं नहीं जानता कि आचार्य विद्यासागर ने जिनसेनाचार्य तथा विक्रमाचार्य के जैन पुराणों का, भाष्यकार पतंजलि और बौद्ध धर्म के 'दिव्यावदान' का साहित्य अवश्य पढ़ा होगा । उनके 'साकेत' वर्णन पर भी उनकी दृष्टि पड़ी होगी । अन्त में महाकाव्य 'साकेत' भी आया होगा । इस महाकाव्य की नायिका उर्मिला को मर्यादित अपेक्षित स्थान पर देख कर इन्हें प्रसन्नता हुई होगी। लगता है, इसी हेतु 'मूकमाटी' को महाकवि ने नायकत्व प्रदान किया है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने 'आधुनिक साहित्य' के पृष्ठ ४४४५ पर उर्मिला और भरत दोनों का नायकत्व स्वीकार किया है। इस मनीषी के समान आलोचक की दृष्टि धारण करने की क्षमता मुझ में नहीं है। मैं नहीं कह सकता कि 'मूकमाटी' में नायकत्व मूकमाटी और कुम्भकार दोनों के हाथ में है । मूकमाटी ही पाठकों की सहृदयता एवं सहानुभूति - सहिष्णुता के निकट है ।
'साकेत' के अष्टम सर्ग में सीता के मनोभावों की व्यंजना मिलती है । सीता माँ धरती की बेटी है । उसमें सहनशीलता, कर्मशीलता, प्रकृति - सन्निधिशीलता, परदुःखकातरता, सेवावृत्ति और जन्मभूमि - कर्मभूमि- संस्कृति के प्रति अनुराग आदि विशेषताएँ व्यंजित हैं । 'मूकमाटी' में भी ये गुण हैं और उसमें 'वास्तविक जीवन' तथा 'सात्त्विक जीवन' भी है । सीता में भी ये गुण हैं । 'द्वापर' में गुप्तजी ने कृष्ण पर लगे लांछन ( परकीया) को प्रक्षालित करने का