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मूकमाटी-मीमांसा :: 149
प्रायः सभी संग मानव प्रकृति और मानव समाज से जुड़े हैं।
द्विवेदी युग की कुछ प्रवृत्तियाँ भी इसमें यत्र-तत्र प्रतिबिम्बित हैं। देशभक्ति, धार्मिकता का रस भर कर कविता में नवीनता का विधान, समाज-कल्याण, मराठी की इतिवृत्तात्मक शैली का प्रयोग, सांस्कृतिक अतीत को जगाने की भावना, बुद्धि की तर्क शक्ति का विकास, कुछ नवीन तथा साधारण विषयों को काव्योचित स्थान, भाषा संस्कार, पौराणिक आख्यानों एवं पहचानों की स्थापना, ऐतिहासिकता से बँधे चरित्र की ओर संकेत, वर्तमान समस्याओं एवं हलचलों की व्याख्या, रीतिकालीन शृंगार भावना का परित्याग और नैतिकता की स्थापना की दृष्टि से यह द्विवेदी युग के निकट की रचना समझी जाएगी।
आधुनिक काल में छायावाद की प्रमुखता स्वीकृत है। द्विवेदी युग का भाषा-शैथिल्य इस काल में कम होता गया । इतिवृत्तात्मकता भी नहीं फूली-फली । प्रकृति में मानवीकरण और दार्शनिक अनुभूति को विशेष स्थान मिला । स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह भी मुखर हुआ। प्रेम और सौन्दर्य की भावना भी मौन तपस्विनी की तरह साधना करने लगी । सर्वात्मवाद को प्रश्रय मिला । व्यक्तिवाद के साथ स्वतन्त्रता का पक्ष भी सबल हुआ। मानवतावाद और आदर्शवाद पर युग, लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता का प्रभाव पड़ा । इन विशेषताओं की कसौटी पर 'मूकमाटी' का रचना तन्त्र कहीं सुलझा तो कहीं उलझा दिखाई पड़ता है।
प्रगतिवादी दृष्टिकोण का आधार मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक विकासवाद, मूल्य वृद्धि के सिद्धान्त और मूल सभ्यता के विकास क्रम का पल्लवन है । मार्क्स के मतावलम्बी मानते हैं कि विश्व की अर्थव्यवस्था और सभ्यता दो वर्गों में विभक्त है- एक, शोषक वर्ग और दूसरा, शोषित वर्ग । शोषित वर्ग का शोषक वर्ग के प्रति रोष-विद्रोह ही प्रगतिवाद है। साम्यवाद की विचार धारा का आधार भी यही है । श्रमिक ही साम्यवाद का दृष्टि बिन्दु है। 'मूकमाटी' के प्रारम्भ से अन्त तक प्रकारान्तर से श्रम-श्रमहारा के साथ श्रम की साध्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। श्रम के विविध रूपों का खुल कर चित्रण किया गया है । ग्रन्थ के मूल चरण यथार्थ की मिट्टी पर टिके हैं। साम्यवादी विचारधारा कवि की भावना के निकट रचना करती दिखलाई पड़ती है । कवि का साम्यवाद मानवतावादी दृष्टि रखता है । राजनीतिक उथल-पुथल पर उसकी आस्था नहीं। प्रगतिवाद में परिष्कृति और परिमार्जन की आवश्कता अनुभूत हुई। नलिन विलोचन शर्मा की उद्भावना से यह कार्य सामने आया। लक्ष्मीकान्त वर्मा एवं जगदीश गुप्त ने इसे नई कविता के अंगों से जोड़ा । इसके मूल प्रवर्तक अज्ञेयजी ने इसमें नए सत्यों और नवीन यथार्थताओं का जीवित बोध कराया । उसमें साधारणीकरण की शक्ति भरी जिससे कविता सहृदयता के साथ सम्बद्ध हो जाय ।
'मूकमाटी' नए, प्रबुद्ध, विवेकी व्यक्तियों को लक्ष्य के सम्मुख रखकर लिखी गई है। इसका आस्वादन करने की क्षमता उनमें है जो नए कवि के समान सोचने की शक्ति रखते हैं और जिनकी बौद्धिक और मानसिक चेतना भावुकता पर आधारित है। इसमें मानव वृत्तियों और प्रवृत्तियों को नए ढंग से अभिव्यक्त किया गया है । इसके शब्द, इसके शब्द-बन्ध और इसके स्वर पाठकों पर नया प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इसकी कविताओं में स्वच्छन्द यथार्थ के साथ बौद्धिक लाक्षणिकता का समन्वय किया गया है। हाँ, इस पुस्तक में अहंनिष्ठा, व्यक्तिवाद, नग्न यथार्थ, निराशावाद, उपमानों की नवीनता, व्याकरणसिद्ध रूपों की अवहेलना आदि कहीं नहीं है। इस दृष्टि से इसे प्रयोगवादी परिधि में नहीं रखा जा सकता। हाँ, प्रयोगवादी धारा से निकली 'बिम्बवादी' धारा के कुछ प्रवृत्यात्मक लक्षणों की झलक कहीं-कहीं मिल जाती है।
'मूकमाटी' का उद्देश्य 'प्रिय प्रवास' के उद्देश्य जैसा ही है । पात्रों की विभिन्नता और वर्ण्य विषय की विलगता होने पर भी दोनों में एक जैसी महान् उद्देश्य की प्रेरणा दिखाई पड़ती है। 'प्रिय प्रवास' में लोकाराधन और लोक मंगल की