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148 :: मूकमाटी-मीमांसा
अपने काव्य को लोकोपकारी मंगल घट तरह सजाया है । रति का प्रसंग इस अंग की स्पष्टता के लिए पर्याप्त है :
“क्षण सुख लागि जनम सतकोटी ।
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काम अछत सुख सपनेउ नाहीं ॥” (तुलसी)
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“विनाश के क्रम तब जुटते हैं/ जब रति साथ देती है
जो मान में प्रमुख होती है / उत्थान-पतन का यही आमुख है ।" (पृ. १६४)
कुम्भ के चित्रों का मूल्यांकन और उसके कर्ण स्थान पर अंकित ९९ और ९ की संख्याओं की अनुप्रशंसा के सम्बन्ध में 'मूकमाटी' का यह अंश इस प्रकार है :
" एक क्षार संसार की द्योतक है / एक क्षीर-सार की ।
एक से मोह का विस्तार मिलता है, / एक से मोक्ष का द्वार खुलता है
... ९९ वह / विघन - माया छलना है, / क्षय-स्वभाव वाली है
... और ९ की संख्या यह / सघन छाया है / पलना है, जीवन जिसमें पलता है अक्षय स्वभाव वाली है/ अजर-अमर अविनाशी / आत्म-तत्त्व की उद्बोधिनी है . संसार ९९ का चक्कर है / ... ९९ हेय हो और / ध्येय हो ९ नव-जीवन का स्रोत !” (पृ. १६६-१६७)
तुलसीदास ने इसके गूढ़ रहस्य को एक दोहे में आबद्ध करके हमारे लिए एक मंगलोद्घाटक उपदेश के साथ प्रस्तुत किया है :
" तुलसी राम सनेह करु, त्यागि सकल उपचार । जैसे घटत न अंक नौ, नौ के लिखत पहार ॥ "
'दोहावली' का यह दोहा यह संकेत करता है कि प्रत्येक दिशा और दशा में ९ का निजत्व कम नहीं होता। यह ९ जब ९० तक पहुँचता है तो राम स्नेही का कल्मष शून्य हो जाता है अर्थात् उसमें आसुरी शक्ति शेष नहीं रह जाती । वह दैवी शक्ति सम्पन्न हो जाता है ।
वर्णक शैली, कवि का व्यक्तित्ववाद और नीति सूक्तियों का उद्घाटन एवं व्याख्या की दृष्टि से इस ग्रन्थ को रीति काल की परिपार्श्विकता का स्पर्शक ग्रन्थ कहा जा सकता है, किन्तु ऐसा कहने में कुछ दु:साहस की व्यवस्था प्रधान हो जाएगी।
आधुनिक काल में पद्य रचना बहुत हुई है। आधुनिक हिन्दी की प्रवृत्तियों की दृष्टिभंगी लेकर कविता को तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है - (१) पूर्व छायावाद युग (२) छायावाद युग (३) उत्तर छायावाद युग । इ विभाजन में छायावाद को आधार माना गया है । छायावादी युग में भारतेन्दु एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी के की युग प्रतिक्रिया ने विस्तार पाया है।
नवीनता की उद्भावना एवं प्राचीनता के संरक्षण की दृष्टि से 'मूकमाटी' को भारतेन्दु काल या कविता के उस सन्धिकाल से जोड़ा जा सकता है । यह बात भाव और कला दोनों दृष्टियों से कही जा सकती है। 'मूकमाटी' के