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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 147 सब कुछ तज कर, वन गये/नग्न, अपने में मग्न बन गये उसी ओर"/उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका भारतीय संस्कृति है/सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।” (पृ. १०२-१०३) कबीर की तरह धार्मिक रूढ़ियों और आडम्बरों का खण्डन भी अपने ढंग से किया गया है। कहीं-कहीं कवि ने कबीर की तरह की गूढ़ उद्भावनाएँ भी सरल ढंग से की हैं : "अरे पातको, ठहरो!/पाप का फल पाना है तुम्हें धर्म का चोला पहन कर/अधर्म का धन छुपाने वालो!" (पृ. ४२६) कबीर ने लिखा है : “का जटा भसम लेपन किये कहा गुफा में बास । मन जीत्या जग जीतिए जो विषया रहै उदास ॥" शब्द चयन एवं प्रयोग में भी कबीर के व्यक्तित्व की तरह कवि का व्यक्तित्व है। खड़ी बोली के वाङ्मय में ऐसे शब्द विधान कम दिखाई पड़ते हैं। शब्दों के प्रयोग में कवि को अधिकार प्राप्त है, देखिए : "मूल-गम्य नहीं हुआ/चूल-रम्य नहीं लगा इसे/बड़ी भूल बन पड़ी इससे । प्रतिकूल पद बढ़ गये/बहुत दूर "पीछे।” (पृ. १०८) कबीर साहित्य की अभिव्यक्तियों में से एक अभिव्यक्ति की (संक्षिप्तता के लिए) तुलना करने से पता चलता है कि आचार्य विद्यासागरजी की विषय निष्ठा भी कबीर जैसी ही है : “कबीर गोरख गोव्यंदौ, मन ही औघड़ होइ । जे मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोइ ॥” (कबीर) "स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है/और अस्थिर मन ही/पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है/एक दु:ख का सो पान है।" (पृ. १०९) भक्ति-काल के प्रमुख कवियों एवं सन्तों ने मानव जीवन को दुःख मुक्त करने के लिए जिन विषयों का सम्पादन किया है, उनमें कई प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें 'मूकमाटी' में कवि ने अपने और परिस्थिति के अनुकूल ढंग से चित्रित किया है। भक्ति-काल के कवियों का अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् दोनों की सीमा विस्तृत थी । बहिर्जगत् की अर्जित अनुभूति ही कल्पनाओं का इन्द्रधनुष बनाने में सहायक होती है। कवि के भीतर आने वाली कल्पना का उद्गार बहिर्जगत् की अनुभूति की सीमा के भीतर ही रहती है। सुख-प्रेम-सत्यता-कल्याणकारिता आदि की अनुभूतियाँ कवि की अन्तर्जगत् सम्पदा हैं। इनकी अभिव्यक्ति के लिए बाहर विस्तृत जगत् से जुड़े शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है। जो मूर्त बनकर मिट जाता है वही शब्दों का इतिहास बन जाता है। कालिदास के वर्ण्य विषय की विविधता और तुलसीदास के दृष्ट दृश्यों की और अधिक विशालता (आचार्यों ने बताया है कि तुलसीदास वर्णित दृश्य संख्या में अधिक हैं) बहिर्जगत् के सूक्ष्म निरीक्षण की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। तुलसीदास की तरह आचार्य विद्यासागर ने भी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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